बड़े दिन हुए, कभी जब आँखों से मन को जोड़ना सीखा था जिसे एक शब्द में शायद "समझ" कहते हैं, पैदा हो रही थी, मानसिक द्वन्द के अभाव में ही सफ्हात में कलम कुछ लिख जाती है, जो उसी समय की मानसिक स्थिति का सबूत होता है। सच ही तो कहा है किसी ने कविता में जाने से पहले, कविता बुनना खतरनाक होता है। सोच समझ कर लिखना, कभी कभी हिसाब के दायरे में आता है, और जब ऐसे दौर जहाँ सभी समझ का खूब प्रयोग कर रहे हैं कविता के साथ, मैं द्वन्द करना चाहता हूँ, बिना समझ के जो समझा गया, उसे ही कविता कह बैठा। चंद कवितायें प्रस्तुत है, जो शायद बारहवीं में लिखी थी। इनको बिना सुधारे यहाँ रख देता हूँ।
१.किंकर्तव्यविमूढ़
कभी फुटपाथ पर बीड़ी जलाते हुए
या कभी यूँ संकल्पों के नाईट बल्ब में
सिरहाने पर मुंह रख सोकर
क्या कोई सुलह है
पगडण्डी पर शिकायतें पड़ी मिलती हैं
माँ की आवाज़ "आज उधार ही पिसवाओ गेंहू"
द्वन्द शुरू से है
कभी नमक पर
कभी मिटटी पर
कहाँ छोड़ेंगे ये रास्ते
जबकि
कुर्ते में रखी चिल्लर ख़तम हुई जाती है
क्या कहीं सुलह है।
२.यथार्थ का झूठ
यथार्थ यह नहीं
कि
सम्भोग और झूठ का पछतावा एक सा होता है
सिगरेट और सिगार के मध्य अवैचारिक मीमांसा ही संस्कृति है
"अप्प दीपो भव" बुद्ध का यह अंतिम वचन भी नहीं है यथार्थ
यथार्थ यह कि
जिंदगी ख़तम हुई जाती है
जीने की तैयारियों के साथ
यह कि सारी ऋतुएं लौट कर आ रही हैं,
धरती पर समय से पहले
वापिस लौटती जा रही है,
गणना को मुंह दिखाए
यथार्थ यह कि
उस मज़दूर ने मिट्टी के सस्ते खिलौने बनाने के लिए
अपने ही आँगन की मिटटी खोदी है
पतीले गरमाने को
पूर्वजों के समकालीन पेड़ काटे हैं
यह कि
सड़कों पर पड़े पत्थर अभी भी
अपने माथे पर सूखे हुए खून के दाग के साथ हैं
नरमांस का स्वाद जानने वाले
शाकाहार के पक्ष में
शब्दों को चबाकर चबाकर बहस कर रहे हैं
राष्ट्रगीत से वीर रस उत्तेजित करने वाले
नगर को, मनहूसियत की जीभ से
बेमुरव्वत हौले हौले चूम रहे हैं
यह कि दिन जले हुए हैं
और रातें बुझी हुई हैं
घबराए हुए चेहरों पर
भक्तिवाद के झंडे लहरा रहे हैं
और सबसे दुखद यह कि
इस सदी का यथार्थ
हमारे बुजुर्गों के द्वारा पढ़े हुए अख़बारों में सबसे दिलचस्प चीज़ है
हमारे बच्चों के लिए मनोरंजक चुटकुला है
चंद लोगों के बीच भाषा के फंदे पर बुनी हुई बहसें हैं
यथार्थ और कुछ नहीं
३. कविता
कविता कहीं नहीं है
और तुम किसी घटना की तलाश में हो
अपने चगले हुए शब्दों में बहा देने के लिए
कविता जैसा कुछ बना देने के लिए
क्या वह कविता नहीं थी
जो मासिक धर्म से निवृत्त स्त्री के चेहरे से
हर्ष की तरह टपक रही थी
हीर और रांझे पर बहस शुरू करने से पहले
क्या तुम्हें वारिस शाह ने नहीं टोका
कि हीर - राँझा कुछ और नहीं
इतिहास की बेजुबान खूंखार चालों से बात करने का सभ्यतागत तरीका था
और सच बात तो इतिहास लिखने के पहले ही चालू हो गई थी
कि मुहब्बत की तराई में खड़े दो लोथड़े
आनंद से बोझिल पश्चाताप की ओर झुकते चले जाते हैं
यह सब कुछ सच है वैसे ही
जैसे मैं
कल रात यूँ ही अपनी प्रेमिका से कह बैठा
तुम्हें रिझाने के लिए तुम्हारी आँखों में बेवजह चाँद ढूंढा करता हूँ
दरअसल तुम्हारी देह ही मेरे
रतजगे ख्वाबों का सितारा है शुरू से
कविता कहीं नहीं है।
_निशांत कौशिक
12 comments:
बारहवीं में लिखी गई ये कवितायेँ पोस्टग्रेजुएशन फलांग चुकी थीं उसी वक्त जब आपने माँ की बेबश आवाज से अपना सुर मिला लिया था .........हार्दिक बधाई .
निशांत जी, ये हुई ना बात... यही चाहिए... आपकी निरंतरता
यकीन नहीं होता यह १२ की कविता है अगर है तो कमाल है...
यथार्थ यह नहीं
कि
सम्भोग और झूठ का पछतावा एक सा होता है
चंद लोगों के बीच भाषा के फंदे पर बुनी हुई बहसें हैं
तुम्हें रिझाने के लिए तुम्हारी आँखों में बेवजह चाँद ढूंढा करताहूँ
दरअसल तुम्हारी देह ही मेरे
रतजगे ख्वाबों का सितारा है शुरू से
कविता कहीं नहीं है।
Adbhut!!!!!!
जय हो.
आपकी पोस्ट से साथ तस्वीर निहारने के लिए भी कुछ समय चहिये होता है... बहरहाल बेहतरीन पोस्ट..
विश्वास नहीं होता कि ये कविता आपने बारवहीं मे लिखा था , लाजवाब लगी , आपने शब्दो को बखूबी और सही जगह प्रयोग में लिया है । बधाई
यार गज़ब हो गया...ताहम में जितने अच्छे तुम लेख पोस्ट करते हो, उतनी अच्छी कवितायें भी..ये फन आया कैसे....बारहवीं में ये कवितायें लिखी थीं...और तुम खुद अभी शायद १८ साल के हो...तुम्हारी कवितायें हिला कर रखने वाली है..तुम अपने लेखन क्षेत्र का विस्तार करो...कविता में समझ की बहुत गहरी और लम्बी छलांग है.....इसके प्रति गंभीर रहना...मैं ने प्रिंट करा ली हैं...और दोस्तों को भी दिखाई...बहुत अच्छे बधाई...
avinash
निशांत सारे ख़तरे उठाकर कह रहा हूं कि ये वाकई बहुत उम्दा कवितायें हैं-- गहरी और बेहद संबद्ध -- तुम्हारे भीतर कविताई का गुण और प्रतिभा है -- पर साथ ही इसको अराजक होने और लगातार अमूर्त होते जाने का ख़तरा भी है इससे तुम्हें सावधान रहना होगा।
मेरी ढेर सारी शुभकामनायें लो और युवा दख़ल के अगले अंक के लिये दो कवितायें भेजो।
बहुत बढ़िया कवितायें है......शुभकामनाएं।
भीतर बहुत कुछ है इसका अंदाजा तो था पर इस कदर उसे सामने लाकर लिबास पहनाना भी ....उसे रोकते रोकते धकेलना है......अजीब इत्तिफाक है के गौरव सोलंकी .से प्रमोद जी के बाद तुम्हारी कविता पढ़ रहा हूं ओर
यकीन मनो
माँ की आवाज़ "आज उधार ही पिसवाओ गेंहू"
द्वन्द शुरू से है
कभी नमक पर
बहुत कुछ कह जाता है .......
"सम्भोग और झूठ का पछतावा एक सा होता है
सिगरेट और सिगार के मध्य अवैचारिक मीमांसा ही संस्कृति है"
......ऐसा वाक्य है जो बरसो संभल के रखने लायक है ......
सड़कों पर पड़े पत्थर अभी भी
अपने माथे पर सूखे हुए खून के दाग के साथ हैं
नरमांस का स्वाद जानने वाले
शाकाहार के पक्ष में
शब्दों को चबाकर चबाकर बहस कर रहे हैं
again masterpiece......
and this one......
तुम्हें रिझाने के लिए तुम्हारी आँखों में बेवजह चाँद ढूंढा करता हूँ
दरअसल तुम्हारी देह ही मेरे
रतजगे ख्वाबों का सितारा है शुरू से
कविता कहीं नहीं है।
superb man.....
dost main ek najar me keval sabdon ko hi samjha hun ..... bhavoon ko samajhane ke liye mujhe panne par likh kar samajhna padega vaise abhi tak bahut accha prayaas hai..... shesh pratikriya baad mein..... lekin jatilta ne hila ke rakh diya ......... shaayad kisi novel ko padane ke baad bhi itna vichaar kiya tha
ye anuthtam prayas hai ......MOHIT(BHOPAL)
विश्वास से परे है ... १२ वी कक्षा और इतनी गहरी ..सुलझी हुई सोच ....
कमाल का लिखा है ...
तुम्हें रिझाने के लिए तुम्हारी आँखों में बेवजह चाँद ढूंढा करता हूँ
दरअसल तुम्हारी देह ही मेरे
रतजगे ख्वाबों का सितारा है शुरू से
कविता कहीं नहीं है।
एक सच्चाई है खुद से बोली हुयी, उससे नही...क्या यार..वाह..पहली बार आया हू चिट्ठाच्रर्चा से यहा पर..उम्मीद है बुलाते रहोगे :)
कल से आज तक..पता नहीं कितनी बार ..पढ़ा होगा..कुछ पंक्तियों पर बार-बार ठिठक जाना हुआ....अजीब कैफ़ियत रही..
.भाई लोग मार डालेंगे.....इतना सच मत बोलो.......
ख़ूब ..ख़ूब तर!
यूँ चकित इसलिए नहीं हुआ..कि तुम्हें जान रहा हूँ....
लेकिन अंत में भाई अशोक के हवाले:
अराजक होने और लगातार अमूर्त होते जाने का ख़तरा भी है इससे तुम्हें सावधान रहना होगा।
ओह!
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ताहम........