सोमवार, 24 मई 2010

बीते हुए को लेकर बिताने वाले समय के साथ



अपने समय पर हस्तक्षेप करना, एक अधिकार होता है जो अतीत और वर्तमान के परिदृश्यों के बोध को केंद्र में रखकर निभाया जाता है. ताहम ने जिस वैचारिक आन्दोलन की भूमिका के साथ ब्लॉग जगत में प्रवेश किया था, अनिश्चितताएं, अनियमितता एवं तकनीकी समस्याएं, योजनाबद्ध तरीकों से कार्य रेखांकन में रोक बनती ही रहीं हैं. मगर कुछ प्रमाणिक बिन्दुओं को केंद्र में रखकर उसपर अधिक से अधिक वैचारिक मुबाहिसे लेखों, कविताओं पर मीमांसा का शगल भी सफल रहा है भले कुछ ही स्तर तक. और इस तरह ताहम ने आज २५ मई को अपना एक वर्ष पूरा किया.

भावी योजनाओं के अंतर्गत कुछ प्रश्न भी रखे जा सकते हैं. मुख्यतः जो आलेखों के मध्य किसी न किसी माध्यम से उपस्थित रहेंगे.

युवा लेखन में विचारधारागत लेखन की प्रतिबद्धता का टूटना और परिणामतः समकालीन साहित्य का सामाजिक सरोकार क्या हो सकता है ?, रंगमंच और मौलिकता, कहानी और उत्तर आधुनिकतावाद, सरलीकरण का दौर एवं भाषा विज्ञान. साहित्य की राजनैतिक,दार्शनिक,सामाजिक एवं नैतिक सम्बद्धता.

तथा ऐसे ही कई बिन्दुओं पर आलेख प्रस्तुत करने की योजना होगी.

_निशांत कौशिक

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"ज़ुल्म अगर ज्यादा ही बढ़ गया हो
बढ़ा लेनी चाहिए अपनी कीमतें

कोड़ा खाने, चीखने चिल्लाने से होगा
यही बेहतर

अधिक दाम लेकर चुप रहना !! "

गुरुवार, 6 मई 2010

आलोचना के अधूरे प्रतिमान

६०-७० के दशक में परिपक्व हुआ नक्सलबाड़ी आन्दोलन आज घोर वैचारिक संकट से गुज़र रहा है. आन्दोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ता चारू मजुमदार और कानू सान्याल के हस्र के बारे में सभी जानते हैं. फिर भी, जिस हलके में नक्सल आन्दोलन को आज आँका और उसके मुताल्लिक दुष्प्रचार किया जा रहा, वह दोनों पक्षों को भयावह हाशिये में छोड़ सकता है.

भारत के समकालीन कम्युनिस्ट आन्दोलन में तमाम तरह की खामियों के बावजूद जो बेहतरी के प्रयास उसके द्वारा किये गए, उसे एक आदतन कार्यवाही के क्षेत्र में रखा जा सकता है. थोथे कम्युनिस्ट आलोचक (न कि कम्युनिज्म) जिनकी नज़र में सिंगुर-नंदीग्राम सबसे भयावह मसला, और विस्थापन है, "धर्म विरोधी कम्युनिज्म" अवधारणा के आधे अधूरे जुमले ज़बान में बांधे घूमना ग्लैमर हो चला है. फुकोयामा की किताब " द एंड ऑफ़ हिस्ट्री" या फिर राहुल सांकृत्यायन के ज़बान में "गलतियों से भरा इतिहास" जैसे वाक्यों को दोहराना दोहरे मापदंड के प्रमाण हैं, जो नपे तुले तर्कों से प्रतिवाद करते हैं. कम से कम मेरा दृष्टिकोण कतई भी भारत के वाम दलों की पैरवी करना नहीं है, वरन संक्षिप्त में इसके बारे में प्रचलित धारणा को अपने नज़रिए से स्पष्ट करना हैं.

व्यवहारिक बिंदु "छत्तीसगढ़ आज नक्सल आतंक का गढ़ बना हुआ है" "आए दिन उनके द्वारा किये जाने वाले अत्याचार" या इसी तरह की तमाम अखबारी धारणाओं को केंद्र में रखकर देखा जाता रहा है कि चीन - नेपाल या अन्य वाम प्रधानिक-प्रभावित क्षेत्रों से नक्सलियों को बड़ी संख्या में हथियार भेजे जा रहे हैं. क्या राज्य सरकारों की चैतन्यता का दृष्टिकोण या अखबारों की तेज़ नज़रों के बिम्ब इन बातों को स्पष्ट नहीं कर सकते कि इन हथियारों (हथियारों के ज़खीरों) के आदान प्रदान का माध्यम क्या है. ट्रांसपोर्ट के किस मीडियम के तहत इन ज़खीरों को पंहुचाया जा रहा है संभाव्य निष्कर्ष यह कि यह मदद राज्य सरकारों के बाशिंदों द्वारा ही पंहुचाई जा रही है. जो अपने लिए एक मजबूत विपक्ष भी तैयार कर रही है. नक्सलियों की मदद करते हुए. जिस जनता को वह बुनियादी सुविधाएं बिजली, पानी, सड़कों के माध्यम से लम्बे समय तक विश्वास के सरोकार को नहीं बना सकती. उस समय में नक्सल विरोधी अभियान राज्य सरकार को जनता के बीच में लोकप्रिय छवि बनवाने में कारगर साबित होंगे.

नक्सलबाड़ी आन्दोलन की शुरुआत एक सुगठित दृष्टिकोण पर भले ही निर्भर न हो, मगर उसका विषय बेहद आवश्यक था.क्रांति दोहराने की निंदा करने वाले भले ही नेपथ्य में बैठे कुछ चरित्र इस आन्दोलन को चीनी-रूसी वाम आन्दोलन थीम के तहत ब्रेड, पीस, सत्ता हथियाने का कारगर हथियार मानते रहे हों. मगर समकालीन परिस्थिति को देखकर ये सपना एक भयावह सच है. इन सब से छुटकारे पाने के सरकारी उपाय बेहद अलोकतांत्रिक और गैर वैचारिक हैं. जो निष्कर्ष हीन हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के थोथे आलोचक विस्थापन के नाम पर नंदीग्राम का हवाला देते हैं. जो कि उनकी नज़र में सबसे भयावह विस्थापन है. शहर जबलपुर में इन दिनों पावर प्रोजेक्टों की बाढ़ आई है, चुटका,झांसीघाट, बरगी और शहर के १०० कि.मी. के रेडियस में तेज़ी से चल रही प्रक्रिया विस्थापन के उदाहरण में सिंगुर-नंदीग्राम से खतरनाक है. संसाधनों को लेकर किये जाने वाले विस्थापन उन के लिए कतई कारगर नहीं, जिन्हें अपनी ज़मीन छोडनी होगी, वे हमेशा इन से वंचित रहेंगे. बंगाल वही जगह है जहाँ प्रति एकड़ के हिसाब से लाखों की ज़मीन बेचीं जा रही थी. मालिक,बटईदार के आपसी मसलों को सरकार और स्थापित होने वाले संसाधन को भी गिरह में लिया, निष्कर्षतः मामला खटाई में गया. जबलपुर शहर में १०००० हज़ार रूपए प्रति एकड़ के हिसाब से उपजाऊ ज़मीन बेचीं जा रही है, और स्थानीय रहवासी इस श्रृंखला में हैं कि उनकी ज़मीन किस तरह बिक जाए. चुटका में नर्मदा किनारे बस रही फैक्ट्री से यदि किसी भी तरह का रासायनिक स्त्राव होता है तो नर्मदा , नर्मदा न रहेगी. फैक्ट्री के निर्माण में हो रही देरी के विरोध में शहर के तमाम अखबार काले निकले जाते हैं. और तार्किक दलीलों के साथ ज्ञापन सोंपे जाते हैं. जबलपुर और सम्पूर्ण भारत में चल रहे इस विस्थापन का वे कतई विरोध नहीं करते जो आए दिन बंगाल के उदाहरण ले बैठते हैं. बंगाल में जो कुछ हुआ वो बेहद शर्मनाक है, किन्तु अब जो होगा वह शर्मनाक जैसे शब्दों से ऊपर होगा.

_निशांत कौशिक

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

शीर्षकहीन कविता


मन की कई अवस्थाओं में एक अवस्था उत्तेजना होती है, उत्तेजना को एक समूल तर्क के साथ यदि आस पास घट रही मुसलसल घटनाओं से जोड़ कर देखा जाए तो इस कन्वर्ज़न को चैतन्यता कहते हैं. यह घटनाएं हमारे निजी मसलों से भी जुडी होती हैं, एवं सामाजिक सरोकारों से भी सम्बद्ध. उत्तेजना हर पल उठती है, किन्तु इस सामाजिक उत्तेजना को पुनः निजी स्वार्थ से जोड़ा जाए तो यह अभी अभी घटे स्वच्छ वातावरण पर प्रतिवाद के स्तर पर पूरे समाज की चेतना बन जाती है. जो और कुछ नहीं अपने आप में एक 'मुकम्मल बयान होती है' उत्तेजना से चैतन्यता तक के ट्रांसफारमेशन का एक अंश लिए हुए एक कविता. कविता बहुत बार अपने मानसिक चरित्र से बाहर आकर अपने पास मौजूद तर्क प्रस्तुत करती है, और पुनः पुनः लौट जाती है वहीं 'निजी' घटना की ओर. इस बाहर आने की अवधि से सामाजिक सम्बद्धता और पुनः अपने चरित्र में लौटने तक का दौर ही गवाही है, एक ''शीर्षक हीन कविता"।


पहुँच से बाहर नहीं है मेरे
कुछ भी
लेकिन जब मैं पहुँच जाता हूँ वहां
तो बाहर हो जाता हूँ उस ' कुछ भी' से
अपने आप

स्वप्न कुछ नहीं होता
मगर कुछ भी हो जाता है मेरे लिए एक स्वप्न !

अपने लिए कोई सटीक उदाहरण तलाशता मैं
भटक जाता हूँ
जान बूझकर
उस ' प्रसन्न अवस्था ' में जाने से पहले

धीरे से एक ठुनगी मार कर गिरा लेता हूँ
अपना बना - बनाया घर
मारे डर के
कि कहीं मैं बेरोजगार न हो जाऊं

उन दिनों मैं
कुछ ठहर सा गया था
किसी एक बहुत साधारण लेकिन 'सुरक्षित काल' में
और एक दिन
मेरे कान के बहुत पास कोई चिल्लाया
" डरपोक ! तू बेरोजगार है, मानसिक मंदी का शिकार है "

फिर घर, घर कहाँ होते हैं आजकल
कालिख पोतने और पोंछने की जगह बनके रह गए हैं...बस

घर बनाने वालों की शान में
बाहरी दीवारे बिल्कुल साफ रखी जातीं है
छज्जों पर बैठे कबूतरों को गोली मार दी जाती है

इसीलिए मैं एक ठुनगी में गिरा देता हूँ अपना घर
कि
न कालिख पोती जाये
न पोछी जाये
न कबूतरों को गोली मारी जाये
और उसमे मेरा निहित
निजी स्वार्थ ये
कि मैं बेरोजगार न होने पाऊं

हम बिना घर वाले लोग
ठीक - ठाक होते है
हालाँकि हमारे हाथ कुछ भी लग जाये
तो वो कुछ भी नहीं रहता
हम अच्छी तरह समझते है
कि हमारे पहुँच के बाहर कुछ भी नहीं है
'घर' भी नहीं
लेकिन हम,
हम बेरोजगार नहीं होना चाहते |




कविता - रितेश मिश्र

_निशांत कौशिक

बुधवार, 24 मार्च 2010

नशे में आत्मकथा


कंसेप्ट बहुत पहले से गूंज रहा था, मगर इसको शब्दों में उतारने की प्रक्रिया हफ्ते भर पहले ही निभाई गईकुछ दिन पहले सांस्कृतिक साम्राज्यवाद पर लेख तैयार कर रहा था, उसी समय क्षणिक स्थिति में कुछ रचना तैयार हुई। और इस रचना का मूल कारण भी संस्कृति के पक्ष में होने वाले भिन्न भिन्न अनुमान और उनकी सामाजिक भयावहता ही है. भूल जाने की अस्थाई बीमारी से बचते बचते मैं इसके अंतिम स्वरूप तक पहुँच ही गया

कविता प्रस्तुत है :

~~~~~~

समकालीन वक़्त
नया संस्करण है
बेवजह की अनुभूतियों से
भर देने को तत्पर
बजते हुए शून्य को

नेपथ्य में कोई हंगामा नहीं है
सारी छायाएं
अब सामने आकर
कर रही हैं
तर्क के नए प्रतिमानों के साथ
मुसलसल प्रतिवाद
जैसे "नशे में लिखी जा रही हो आत्मकथा"

आकाश में बेतरतीबी से फैला रहा हो कोई चूना
सब बदल रहा है अपरिभाषित चित्र में
सुदूर पूर्व में
तहमत संभाले, आँख मलता सूरज
अपने हिस्से की रौशनी फेंक कर
हत्यारों की तरह भाग रहा है एक दिशा से दूसरी दिशा की जानिब
प्रकृति का सबसे सुन्दर हिस्सा कवियों ने हथिया लिया है

अबरू पर शिकन रखे
गोगां और मतीसी
कब्रों से बाहर निकलकर
अपनी पुरानी कूचियों से
वातावरण को रफू करने की
कवायद में मशगूल है

सभ्यता का एक और रोज़नामचा
हाशिये में बलत्कृत, मांदा पड़ा है

चूहों द्वारा कुतरी गई
किसी विचारधारा के चीथड़े
हवा में अलग अलग बह रहे हैं

मौन
सब कुछ वैसे ही
जैसे
छप्पर संभाले
बुजुर्ग लाकड़ को खाए जा रहा है कीट (वैसे संस्कृति कभी बुजुर्ग नहीं होती)
और समूचा घर खामोश है
सारी समझ के साथ
उनके दौर की बुद्धि
विकल्प में
काटे जा रही है
एक हरे भरे दरख़्त को
या आवाज़ है,
बुजुर्ग लाकड़ को
पाटे हुए नारों के साथ
जिंदा रखने की। ( संस्कृति मरती भी नहीं है)

इस दौर के शब्दकोश में
समझदारी को समझौता कहते हैं


- निशांत कौशिक

गुरुवार, 18 मार्च 2010

पार्क















कविता के बहुत सारे आयामों में तृष्णा,वेदना,सजगता और संवेदनशीलता होना कविता को उसके मूल अर्थ से जोड़ना होता है और इन सबकी समष्टि लेखक की भिन्न भिन्न परिस्थिति से सरोकार समझौते आदि पर समझ और उसका आकलन ही उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति होती है।यह कविता जिसे मैं प्रस्तुत करने के लिए विनम्र कैफियत देना चाहूँगा जिसे मेरी अल्प समझ का तरीका समझे जाने में कोई बुराई नहीं है।

कविता मूलतः दो आयामों में विभक्त है, और इसका पहला आयाम जो प्रात्ययिक या संवेदनशीलता का दौर है कविता में नहीं है। उस संवेदनशीलता में जीना उसको महसूस करना वो एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है। और उस अभिव्यति को अतीत समझकर वर्तमान में बैठकर उसका आकलन करना समस्त सांस्कृतिक, सामाजिक और सभी महत्वपूर्ण परिस्थितिओं को मद्देनज़र रखकर ही कविता को सामने आने का कारण देता है।

कविता के पहले भाग में रचनाकार अपने अतीत में हुए तमाम अनुभवों को आज के समय के अनुसार पुनः पुनः आकलन करता है और इस सम्पूर्ण क्रम में दूसरे पक्ष को भिन्न भिन्न तरीकों से आलोचित करते हुए अंत में इन सब अनुभवों से खुद को मुक्त कर लेता है, इन दोनों बातों को रचना के इन दो भागों से समझा जाता है :



"आज इस रोगग्रस्त संझा
पार्क के एक कोने में
इस दिन भर तपे पत्थर पर बैठकर
सोचता हूँ मैं
कि तुमने अच्छा नहीं किया

सोचता हूँ मैं
कि स्थिति परिवर्तन यही होता है शायद
कि तुम ब्राह्मण हो गए और मैं दलित

तुम्हे प्रेम ने इतना बदला मुझको
कि अभी अभी पार्क में आई एक युवती
मुझे कितनी सहज लग रही थी
मेरे यहाँ होने की तरह सहज "

और कविता के एक और आयाम का नमूना यूँ कि

"एक लम्बी सांस लेता हूँ
नथुनों की गर्मी महसूस करता हूँ
उँगलियों के बीच पसीने को पोंछता हूँ
न जाने क्या हथेली में सूंघता हूँ
ऊँगली के एक नाख़ून की फैंच
बहुत ध्यान से देखता हूँ
अब सोचता हूँ
कि क्या जो कुछ भी तुम्हारे बारे में लिखा मैं ने
और सोचा भी
वो तुम भी सोचते होगे
अगर नहीं तो ये सब महज़ आरोप है
सपाट निंदा है
जिसकी अनुभूति मात्र ही
मुझे गहरे, निर्जन, जलहीन कुँए में फेंक देती है
और मेरी आवाज़, शब्द
उस निर्जनता का सौन्दर्य बनकर रह जाती है। "

कविता का मुख्य आकर्षण सौन्दर्यबोध नहीं, बल्कि विचारधारा और संवेदना का सम्मिश्रण है। कि रचनाकार अपने द्वारा अतीत में किये हुए समस्त कृत्य को आकलित करते हुए उसे वैचारिक तरीके से आलोचित कर रहा है और उन कृत्यों को विचारधारा की दृष्टि से समझते हुए सैद्धांतिक तरीके से अपनी संवेदनशीलता को हौले हौले प्रकाश में ला रहा है ।
मसलन :

"सामने एक घास के गुच्छे को घूरता मैं देर तक
सोचता हूँ उत्पादकता के सिद्धांत पर
और दूसरे ही पल अपने पैंट पर गिरे
एक तृण को झाड़ते हुए
अपने उपभोग के बारे में ।

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं। "

कविता प्रस्तुत है।

आज इस रोगग्रस्त संझा
पार्क के एक कोने
इस दिन भर तपे पत्थर पर बैठकर
सोचता हूँ मैं
कि तुमने अच्छा नहीं किया ।

सोचता हूँ मैं
कि स्थिति परिवर्तन यही होता है शायद
कि तुम ब्राह्मण हो गए और मैं दलित।

तुम्हारे प्रेम ने इतना बदला मुझको
कि अभी-अभी पार्क में आई एक युवती
मुझे कितनी सहज लग रही थी
मेरे यहाँ होने की तरह सहज

सामने एक घास के गुच्छे को घूरता मैं देर तक
सोचता हूँ उत्पादकता के सिद्धांत पर
और दुसरे ही पल
अपने पैंट पर गिरे
एक तृण को झाड़ते हुए
अपने उपभोग के बारे में ।

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं

ये उसी शहर का एक पार्क है
जिस शहर में
मैं तुमसे पहली बार मिला था
इसी शहर में गुजारी थी
मैं ने अपनी पूरी जिंदगी के सामानांतर
मात्र एक शाम
जब पूरा आसमान पीला पड़ गया था
और बारिश की झिर्रियाँ
ज़मीन पर गिरने से पहले हवा में उड़ रही थीं
तब मैं यह मानकर बैठा था
कि तुम्ही मेरा अंतिम प्रेम होगे
और तुम्हें याद नहीं होगा शायद
तुमने भी आसमान की ओर देखते हुए कहा था
' आई एम थैंकिंग गाड दैट ही मेड यू फॉर मी
तब ज़रूर तुम्हारा ईश्वर मुझपर हंस रहा होगा
हालांकि मैं ईश्वर को नहीं मानता
पर तुम्हारा ईश्वर साक्षी है
कि कैसे बदल ली तुमने अपनी भाषा
और अब तुमको वही शाम एक भावनात्मक त्रुटि नज़र आती है
तुमने कैसे मेरी ढेर सारी स्थितियों को
मुट्ठी भर चिलबिल की तरह
मसल कर फूंक दिया
और मैं कुछ न कर सका।

कभी-कभी लगता है कि तुम्हारा एक पूर्व नियोजित क्रम था
कभी-कभी ये भी लगता है
कि तुमने मुझे अपना "सेफ्टी वाल्व" समझा

एक बार ये भी लगता है
कि तुम मुझ जैसे ही किसी व्यक्ति से ही प्रेम करना चाहती थीं
और मेरी जात के प्रेमियों का एक हिस्सा

जो दिखता नहीं है
और जो दिखाया भी नहीं जा सकता
उसे तुम पचा नहीं पाए
अक्सर ये भी लगता है कि
कहीं न कहीं तुम्हारे सामने
अस्तित्व का घोर संकट आता रहा
जो पहले कभी नहीं आया था
हालांकि आरम्भ में तो वह सुखद था
तुम्हारे लिए
पर बाद में तुम घबराने लगे

असल में तुम्हे चारण पसंद थे
पर तुम्हारे अन्दर का विद्रोह
मुझसे प्रेम कर बैठा
और मैं अभागा तुम्हारे विद्रोह का शिकार
उसे तुम्हारा स्वीकार्य, समर्पण समझ बैठा

इसी पार्क में अपने दाहिने तरफ
उस जामुन के पेड़ को देखता हूँ
कि तुमने अच्छा पाठ पढाया मुझको
कि अगर उस जामुन के पेड़ पर ऊपर चढ़ना हो
तो जिस डाल पे हाथ रक्खा है
उसपे पाँव तो रखना ही होगा
मगर अफ़सोस मैं वो सीख ही नहीं पाया
और अब भी उसी पहली डाल पर बैठा हूँ

कि मैं कुछ कहना भी चाहूँ
तो मेरे एक भी शब्द तुम तक नहीं पहुँच पाते हैं
और तुम कहीं भी थूकते हो
तो एकाध छींटे
मुझपर पड़ ही जाते हैं
तुमने विकास के कितने अच्छे-अच्छे तर्क गढ़े हैं
और मैं अविकसित, पिछड़ा
"स्माल इज ब्यूटीफुल" वाले तर्क को लिए बैठा हूँ
बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं
एक लम्बी सांस लेता हूँ
नथुनों की गर्मी महसूस करता हूँ
उँगलियों के बीच पसीने को पोंछता हूँ
न जाने क्या हथेली में सूंघता हूँ
उंगलीके एक नाख़ून की फेंच बहुत ध्यान से देखता हूँ
अब सोचता हूँ
कि क्या जो कुछ भी तुम्हारे बारे में लिखा मैं ने
और सोचा भी
वो तुम भी सोचते होगे
अगर नहीं तो ये सब महज़ आरोप है
सपाट निंदा है
जिसकी अनुभूति मात्र ही
मुझे निर्जन, गहरे, जलहीन कुँए में फेंक देती है
और मेरी आवाज़, शब्द
उस निर्जनता का सौन्दर्य बनकर रह जाती है

जितना ही मैं तुम्हारे बारे मैं सोचता हूँ
उतना निर्वासित होता जाता हूँ
इस बाज़ार से उतना समझ पाता हूँ
उस मर्दानगी को
छान पाता हूँ खुद को
फिर बटोर लेता हूँ
ताकि मैं बिकाऊ न रह सकूँ
ताकि मेरा कोई मूल्य न हो

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं।

रचना - रितेश मिश्र


_निशांत कौशिक