गुरुवार, 18 मार्च 2010

पार्क















कविता के बहुत सारे आयामों में तृष्णा,वेदना,सजगता और संवेदनशीलता होना कविता को उसके मूल अर्थ से जोड़ना होता है और इन सबकी समष्टि लेखक की भिन्न भिन्न परिस्थिति से सरोकार समझौते आदि पर समझ और उसका आकलन ही उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति होती है।यह कविता जिसे मैं प्रस्तुत करने के लिए विनम्र कैफियत देना चाहूँगा जिसे मेरी अल्प समझ का तरीका समझे जाने में कोई बुराई नहीं है।

कविता मूलतः दो आयामों में विभक्त है, और इसका पहला आयाम जो प्रात्ययिक या संवेदनशीलता का दौर है कविता में नहीं है। उस संवेदनशीलता में जीना उसको महसूस करना वो एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है। और उस अभिव्यति को अतीत समझकर वर्तमान में बैठकर उसका आकलन करना समस्त सांस्कृतिक, सामाजिक और सभी महत्वपूर्ण परिस्थितिओं को मद्देनज़र रखकर ही कविता को सामने आने का कारण देता है।

कविता के पहले भाग में रचनाकार अपने अतीत में हुए तमाम अनुभवों को आज के समय के अनुसार पुनः पुनः आकलन करता है और इस सम्पूर्ण क्रम में दूसरे पक्ष को भिन्न भिन्न तरीकों से आलोचित करते हुए अंत में इन सब अनुभवों से खुद को मुक्त कर लेता है, इन दोनों बातों को रचना के इन दो भागों से समझा जाता है :



"आज इस रोगग्रस्त संझा
पार्क के एक कोने में
इस दिन भर तपे पत्थर पर बैठकर
सोचता हूँ मैं
कि तुमने अच्छा नहीं किया

सोचता हूँ मैं
कि स्थिति परिवर्तन यही होता है शायद
कि तुम ब्राह्मण हो गए और मैं दलित

तुम्हे प्रेम ने इतना बदला मुझको
कि अभी अभी पार्क में आई एक युवती
मुझे कितनी सहज लग रही थी
मेरे यहाँ होने की तरह सहज "

और कविता के एक और आयाम का नमूना यूँ कि

"एक लम्बी सांस लेता हूँ
नथुनों की गर्मी महसूस करता हूँ
उँगलियों के बीच पसीने को पोंछता हूँ
न जाने क्या हथेली में सूंघता हूँ
ऊँगली के एक नाख़ून की फैंच
बहुत ध्यान से देखता हूँ
अब सोचता हूँ
कि क्या जो कुछ भी तुम्हारे बारे में लिखा मैं ने
और सोचा भी
वो तुम भी सोचते होगे
अगर नहीं तो ये सब महज़ आरोप है
सपाट निंदा है
जिसकी अनुभूति मात्र ही
मुझे गहरे, निर्जन, जलहीन कुँए में फेंक देती है
और मेरी आवाज़, शब्द
उस निर्जनता का सौन्दर्य बनकर रह जाती है। "

कविता का मुख्य आकर्षण सौन्दर्यबोध नहीं, बल्कि विचारधारा और संवेदना का सम्मिश्रण है। कि रचनाकार अपने द्वारा अतीत में किये हुए समस्त कृत्य को आकलित करते हुए उसे वैचारिक तरीके से आलोचित कर रहा है और उन कृत्यों को विचारधारा की दृष्टि से समझते हुए सैद्धांतिक तरीके से अपनी संवेदनशीलता को हौले हौले प्रकाश में ला रहा है ।
मसलन :

"सामने एक घास के गुच्छे को घूरता मैं देर तक
सोचता हूँ उत्पादकता के सिद्धांत पर
और दूसरे ही पल अपने पैंट पर गिरे
एक तृण को झाड़ते हुए
अपने उपभोग के बारे में ।

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं। "

कविता प्रस्तुत है।

आज इस रोगग्रस्त संझा
पार्क के एक कोने
इस दिन भर तपे पत्थर पर बैठकर
सोचता हूँ मैं
कि तुमने अच्छा नहीं किया ।

सोचता हूँ मैं
कि स्थिति परिवर्तन यही होता है शायद
कि तुम ब्राह्मण हो गए और मैं दलित।

तुम्हारे प्रेम ने इतना बदला मुझको
कि अभी-अभी पार्क में आई एक युवती
मुझे कितनी सहज लग रही थी
मेरे यहाँ होने की तरह सहज

सामने एक घास के गुच्छे को घूरता मैं देर तक
सोचता हूँ उत्पादकता के सिद्धांत पर
और दुसरे ही पल
अपने पैंट पर गिरे
एक तृण को झाड़ते हुए
अपने उपभोग के बारे में ।

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं

ये उसी शहर का एक पार्क है
जिस शहर में
मैं तुमसे पहली बार मिला था
इसी शहर में गुजारी थी
मैं ने अपनी पूरी जिंदगी के सामानांतर
मात्र एक शाम
जब पूरा आसमान पीला पड़ गया था
और बारिश की झिर्रियाँ
ज़मीन पर गिरने से पहले हवा में उड़ रही थीं
तब मैं यह मानकर बैठा था
कि तुम्ही मेरा अंतिम प्रेम होगे
और तुम्हें याद नहीं होगा शायद
तुमने भी आसमान की ओर देखते हुए कहा था
' आई एम थैंकिंग गाड दैट ही मेड यू फॉर मी
तब ज़रूर तुम्हारा ईश्वर मुझपर हंस रहा होगा
हालांकि मैं ईश्वर को नहीं मानता
पर तुम्हारा ईश्वर साक्षी है
कि कैसे बदल ली तुमने अपनी भाषा
और अब तुमको वही शाम एक भावनात्मक त्रुटि नज़र आती है
तुमने कैसे मेरी ढेर सारी स्थितियों को
मुट्ठी भर चिलबिल की तरह
मसल कर फूंक दिया
और मैं कुछ न कर सका।

कभी-कभी लगता है कि तुम्हारा एक पूर्व नियोजित क्रम था
कभी-कभी ये भी लगता है
कि तुमने मुझे अपना "सेफ्टी वाल्व" समझा

एक बार ये भी लगता है
कि तुम मुझ जैसे ही किसी व्यक्ति से ही प्रेम करना चाहती थीं
और मेरी जात के प्रेमियों का एक हिस्सा

जो दिखता नहीं है
और जो दिखाया भी नहीं जा सकता
उसे तुम पचा नहीं पाए
अक्सर ये भी लगता है कि
कहीं न कहीं तुम्हारे सामने
अस्तित्व का घोर संकट आता रहा
जो पहले कभी नहीं आया था
हालांकि आरम्भ में तो वह सुखद था
तुम्हारे लिए
पर बाद में तुम घबराने लगे

असल में तुम्हे चारण पसंद थे
पर तुम्हारे अन्दर का विद्रोह
मुझसे प्रेम कर बैठा
और मैं अभागा तुम्हारे विद्रोह का शिकार
उसे तुम्हारा स्वीकार्य, समर्पण समझ बैठा

इसी पार्क में अपने दाहिने तरफ
उस जामुन के पेड़ को देखता हूँ
कि तुमने अच्छा पाठ पढाया मुझको
कि अगर उस जामुन के पेड़ पर ऊपर चढ़ना हो
तो जिस डाल पे हाथ रक्खा है
उसपे पाँव तो रखना ही होगा
मगर अफ़सोस मैं वो सीख ही नहीं पाया
और अब भी उसी पहली डाल पर बैठा हूँ

कि मैं कुछ कहना भी चाहूँ
तो मेरे एक भी शब्द तुम तक नहीं पहुँच पाते हैं
और तुम कहीं भी थूकते हो
तो एकाध छींटे
मुझपर पड़ ही जाते हैं
तुमने विकास के कितने अच्छे-अच्छे तर्क गढ़े हैं
और मैं अविकसित, पिछड़ा
"स्माल इज ब्यूटीफुल" वाले तर्क को लिए बैठा हूँ
बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं
एक लम्बी सांस लेता हूँ
नथुनों की गर्मी महसूस करता हूँ
उँगलियों के बीच पसीने को पोंछता हूँ
न जाने क्या हथेली में सूंघता हूँ
उंगलीके एक नाख़ून की फेंच बहुत ध्यान से देखता हूँ
अब सोचता हूँ
कि क्या जो कुछ भी तुम्हारे बारे में लिखा मैं ने
और सोचा भी
वो तुम भी सोचते होगे
अगर नहीं तो ये सब महज़ आरोप है
सपाट निंदा है
जिसकी अनुभूति मात्र ही
मुझे निर्जन, गहरे, जलहीन कुँए में फेंक देती है
और मेरी आवाज़, शब्द
उस निर्जनता का सौन्दर्य बनकर रह जाती है

जितना ही मैं तुम्हारे बारे मैं सोचता हूँ
उतना निर्वासित होता जाता हूँ
इस बाज़ार से उतना समझ पाता हूँ
उस मर्दानगी को
छान पाता हूँ खुद को
फिर बटोर लेता हूँ
ताकि मैं बिकाऊ न रह सकूँ
ताकि मेरा कोई मूल्य न हो

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं।

रचना - रितेश मिश्र


_निशांत कौशिक

13 comments:

Arvind k ने कहा…

A great poem Mishraji !! It reminds me of one of my own poems,especially the first verse of the poem.

I am happy that you are owner of a sensitive heart-a prize possession.However,it's a curse in a times marred by material insticts.
I can very well feel the agony and grief that have hit your heart.

It's almsost a pinnacle of tragedy that one whom you love just dosen't understand you the way you are :-)) ..Hindi me kahu to sabse jyada dukh aap ko apne na samjhe jaane ki vajah se hota hai.And the pain magnifies when the one who does that turns out to be your soulmate !!!

http://indowaves.instablogs.com/

daanish ने कहा…

सच....
अलफ़ाज़ की कमी महसूस होना
कभी-कभी खलता भी नहीं
क्योंकि
अस्ल कैफियत के आड़े कुछ भी न आ पाना
मसरूर कर जाता है कभी-कभी ....

.....!!

daanish ने कहा…

aapko
manu 'betkhallus' ke yahaaN
dekh kar bahut khushi huee .
(manu-uvaach.blogspot.com)

सुशीला पुरी ने कहा…

एक मुट्ठी चिलबिल की तरह ............वाह !!! सघन अनुभूति .

Amitraghat ने कहा…

"कल अलग-अलग वक्त पर मैंने यह कविता पढ़ी और रात इसी में बीत गई कि मैं क्या लिखूँ और जब सुबह हुई तो सब कुछ आसान हो गया और मैं उस लंबी -सी कविता में होकर गुज़र गया,और अब मैं ही वो पार्क था,मैं ही था वो घास का गुच्छा,वो हँसता हुआ ईश्वर, जामुन का वो पेड़,वो उंगली की फेंच और मैं ही तो हुआ था निर्वासित.........।
और अब कुछ भी शेष नहीं रहा इस कविता के बारे में लिखने को सिवाए इसके कि जिसके विरूद्ध रची गई थी ये कविता वो मुझे किसी की हत्या करके लौटे मोसाद के मासूम एजेंट की तरह लगा........"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

डॉ .अनुराग ने कहा…

प्रिय निशांत अभी सिर्फ हाजिरी देने आया हूँ.....कविता के सन्दर्भ में तुम्हारी विवेचना ...ओर कविताएं दोनों पर टिपण्णी करूँगा....पर तुम्हारी राय इस संवाद पर जानने की इच्छा है

डॉ .अनुराग ने कहा…

apna mail bhejo........
vaise link ye bhi hai....

http://chitthacharcha.blogspot.com/2010/03/blog-post_17.html

manu ने कहा…

बर्बाद करके मुझको यूं फरमा रहे हैं वो..
साहिब, हमें तो इश्क कभी भी हुआ न था..

Unknown ने कहा…

ye kavi ya ..khuli talwar..jab bhi padhta hun inhe lagta hai lagtaar vaar ho rahe hain ..bhai inka pura parichay dein ..!

प्रीतीश बारहठ ने कहा…

मैं जला और तुमने आतश किया
एक ही काम था हमने मिलके किया

संदीप ने कहा…

फिलहाल तो मैं इसमें लगाई गई पेंटिंग पर प्रतिक्रिया देना चाहूंगा, यह विलियम टर्नर की पेंटिंग 'स्‍लेव शिप' है, दरअसल इसमें अठारहवीं शताब्‍दी में दासों के व्‍यापारियों की उस घिनौनी हकीकत का बयान है जिसमे वे यात्रा के दौरान मरने वाले दासों को या जो दास मरने वाले होते थे, उन्‍हें जहाज से फेंक देते थे। इसके अतिरिक्‍त, टर्नर की एक पेंटिंग स्‍टॉर्म मुझे बेहद पसंद है...

बेनामी ने कहा…

Interesting poetry!!! Seems it touched hearts far & wide... like any monologue! A single narrator unwittingly carves other characters into one-dimensional cardboard people...

I was interested in the alternative versions of this story... a story which was peeping through these lines... "u could not digest..." wonder what was it... abuse? Would you like to elaborate?

Or was it just a momentary ventilation, anger and hurt spilling out of the male ego!

Believe personal reflections were brought in the market in form of a well writen poetry, (or was it a play as u mentioned Ritesh) to be sold for some public appalause!
Who was more materialistc???

Unknown ने कहा…

Good work.....surely it will move and touch the hearts of all whether they faced this or not....
"True love can blind you but at the same time if you let it, it can also open your eyes."
– By Anonymous

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ताहम........