मंगलवार, 2 मार्च 2010

एक भाषा की मृत्यु.......!

अंडमान की ८५ वर्षीय महिला "बोआ बुजुर्ग" जो "बो" भाषा को समझने का अंतिम माध्यम थीं


इस लेख को संक्षिप्त में २ भागो में रखता हूँ, पहली तो "बो" और दूसरा भारत में " हिंदी के समकालीन सरलीकृत साहित्य के प्रति"।

" बोआ " इस नाम से इन दिनों सभी परिचित होंगे, "बोआ" अंडमान के विशेष अंडमानी जाति के आदिवासी समुदाय की ८५ वर्षीय महिला थी, जो बीते दिनों स्वास्थ्य के चलते विदा हो गई। अंडमान की मुख्य १० भाषाओं में एक " बो " भाषा जो कि मूल रूप से संवाद आदि माध्यमों में ज्यादा परिपक्व थी, बजाय साहित्य के। इस ८५ वर्षीय महिला के साथ यह भी ख़तम हो गई। भाषा वैज्ञानिकों के पास इस भाषा के प्रति बहुत शोध हैं, मगर इसको वार्तालाप के तरीके तक लाने का माध्यम अब नहीं रहा, और अंडमान की बहुत ख़ास भाषा के साथ साथ एक जनजाति भी ख़तम हो गई। और तमाम तरह के साधन होने के बावजूद यदि इतिहास को खंगालेगा भविष्य तो "बो" संस्कृति की पहचान के अवशेष मिलेंगे मगर उन के प्रतीकों को समझने वाला अब कोई नहीं बचा। बस गवाह यह कि "एक भाषा की मृत्यु हमारे सामने हुई"

ये वक़्त
वक़्त नहीं मुक़दमा है
या तो गवाही दो
या गूंगे हो जाओ _ चंद्रकांत देवताले

सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में भारत जैसे बहुभाषी देश में, कई बोलियाँ शिकस्त पर चुकी हैंग्रियर्सन और अनेक शोधों के परिणाम स्वरूप बोलियों में घटोत्तरी - बढ़ोत्तरी हो रही है, जिसमें नई मिश्रित भाषाएँ (बोली) तो रही हैं, वहीं पुरानी बहुत सी बोलियों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा हैसीधे कहा जाए कि बहुभाषी देश होने के बावजूद भारत में इतनी विशाल संस्कृतियों, भाषाओं,बोलियों को बचाने के कोई उपाय नहीं किये जा रहे, और ये सब बोलियां हाशिये पर हैं, इनकी संस्कृति से उन लोगो को कोई मतलब नहीं जो अपनी प्रादेशिक या राष्ट्रीय छद्म संस्कृति के लिए तलवार लिए खड़े हैंहिंदी साहित्य में एक नयी पीढ़ी (आमतौर पर) तैयार हो रही है, जिनकी सृजन क्षमता मात्र उनकी अभिव्यक्ति खासकर "प्रेम" पर जाकर समाप्त हो जाती हैंइंटरनेट में ही मैं ने कई अनुभवी ४०-४५ साल के लोगों को मूल्यहीन प्रेम कविताओं में अपना समय बांटते देखा है, अपने ब्लोग्स में ये कविताएँ पोस्ट करने पर टिप्पणी की संख्या देखकर उनकी रचना के स्तर का निर्धारण होता है, और टिपण्णीकर्ता भी बिना कुछ पढ़े,समझे आत्मीय संबोधनों से रचनाकार को खुश कर देते हैं कि भविष्य में हमारी किसी रचना के प्रति इनके विचार शुभ रहे। और आलोचना करने पर कविता को " अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" कहकर फ़ौरन दामन छुड़ा ले जाते हैं। मुश्किल से चंद जगहों पर कविता,रचना की मीमांसा या उसकी खुलकर आलोचना देखने पाती है

उर्दू भाषा में लिखे गए साहित्य में कम से कम ७६% साहित्य वस्ल,राहत,बेवफा,वफ़ा,रुसवाई जैसे शब्दों से अटा पड़ा है,जिसमें,ग़ालिब,मीर,वली दकनी,आदिल शाह,वाजिद अली शाह, बहादुर शाह ज़फर आदि मुख्य तौर पर सामने आते हैंइनकी अगली पीढ़ी में ब्रजनारायण चकबस्त (आध्यात्मिक एवं राष्ट्र मीमांसात्मक) ,नज़ीर(लोक रंग), इकबाल (शुरू में रहस्यवादी या सूफी खासकर हाफिज़, सादी और रूमी,राष्ट्र भक्ति, इस्लामिक धारा ), फिराक़ गोरखपुरी (तत्व मीमांसा, दृष्टि योजना, प्रयोगवाद) आदि मुख्य हैं, जो साहित्य की तत्कालीन धारा को प्रभावित करते हैं
हिंदी साहित्य के साथ कम से कम शुरू में ये समस्या नहीं रही मगर अब यही समस्या प्रवाह बनकर छा रही है, इलेक्ट्रोनिक मीडिया,अखबार जगत में ये वर्ग इस तरह छाया है कि वास्तव में जो गंभीरता से लिखा जा रहा है वह इस विशाल मूल्यहीन साहित्य के नीचे दबा चला जा रहा है
उनका कहना है कि अब कविता मनोरंजन का साधन बन गई है, कैम्पस में जयशंकर प्रसाद, या किसी आधुनिक कवि की समझ से लिखी गई कविताएँ नहीं कुमार विश्वास की श्रृंगार लालित्य से परिपूर्ण कविताएँ सुनी जा रही हैं, और ये लोगो को पसंद भी हैं, इसमें सवाल कुमार विश्वास पर नहीं, हमारी समझ पर है कि साहित्य को कब तक इसी रूप में स्वीकार करते रहेंगेक्या इस तरह से साहित्य बचा रह सकता है, जो व्यक्तिवादी अभिव्यक्तियो से भरा पड़ा हो, बजाय उस समय के आकलन के
खैर! भाषाई साम्राज्यवाद की परिभाषा में स्पष्ट किया था कि हिंदी का ख़ास रूप समाज में विकसित होते होते कहीं और जा मिला और साहित्य को तो फिलहाल छोड़ा ही जाए, हम प्रेमचंद,शरत चन्द्र,मंटो को पढ़कर बड़े हुए हैं, और अब बच्चे चेतन भगत को पढ़कर युवा हो रहे हैंसवाल ये नहीं कि चेतन भगत को छोड़कर प्रेमचंद को पढना चाहिए, या कुमार विश्वास की जगह कबीर के बीजक को गाना चाहिएसवाल यह कि हम कब तक ये बचकानी हरकतें करते रहेंगे, साहित्य देश की संस्कृति,मानसिक चिंतन,वैचारिकता सभी को सामने रखता है, किन्तु ये साहित्य अगर कहीं रखा जाए तो संस्कृति की नहीं, बस किसी व्यक्तिवादी धारणा की पहचान हो सकती हैंइंटरनेट में कई वेबसाईट हैं जहाँ आर्थिक योगदान करके आसानी से सूची में शामिल हुआ जा सकता हैभले ही आपकी रचनाओं में कुछ हो या होजीतेन्द्र गुप्ता ने एक बहुत उम्दा बात रखी थी, कि "क्या किसी भाषा का अस्तित्व सिर्फ कहानी,उपन्यास,कविता पर टिका हुआ है " ? अगर इसका उत्तर हाँ है तो भाषा का अस्तित्व खतरे में हैं, और अगर नहीं तो मैंने " भाषाई साम्राज्यवाद " लेख में पहले ही कह दिया था कि हिंदी भाषा समाज से कैसे विमुख हो रही है, और ये कैसे मिश्रित परिधान पहनकर हमारे जीवन में प्रवेश कर रही है। इसी लेख से मिलती जुलती एक कविता रखकर लेख समाप्त करता हूँ



चिंता करो मूर्धन्य " " की
किसी तरह बचा सको तो बचालो "ङ"
देखो,कौन चुरा कर लिए चला जा रहा है खड़ी पाई
और नागरी के सारे अंक
जाने कहाँ चला गया ऋषियों का " "

चली रही हैं इस्पात,फाइबर और अज्ञात यौगिक
धातुओं की तमाम अपरिचित - अभूतपूर्व चीज़ें
किसी विस्फोट के बदल की तरह हमारे संसार में
बैटरी का हनुमान उठा रहा है प्लास्टिक का पहाड़
और बच्चो के हाथों में बोल रही कोई
डरावनी चीज़ _ डीप..डी..डीप

बचालो मेरी नानी का पहियों वाला काठ का नीला घोडा
संभाल कर रखो अपने लट्टू
पतंगें छुपा दो किसी सुरक्षित जगह पर

देखो, हिलता है पृथ्वी पर
अमरुद का अंतिम पेड़
उड़ते हैं आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते

बताएं सारे विद्वान्
मैं कहाँ पर टांग दूँ अपने दादा की मिरजई
किस संग्रहालय को भेजूं पिता का बसूला
माँ का करधन और बहन के बिछुए मैं
किस सरकार को सौंपू हिफाज़त के लिए

मैं अपील करता हूँ राष्ट्रपति से कि
वे घोषित करें
खिचड़ी,ठठेरा,मदारी,लोहार,किताब,भड्भुन्जा,कवि और हाथी को
विलुप्तप्राय राष्ट्रीय प्राणी

वैसे खडाऊं ,दातुन और पीतल के लोटे को
बचाने की इतनी सख्त ज़रूरत नहीं है
रथ,राजकुमारी,धनुष,ढाल और तांत्रिकों के
संरक्षण के लिए भी ज़रूरी नहीं है कोई कानून

बचाना ही हो तो बचे जाने चाहिए
गाँव में खेत,जंगल में पेड़,शहर में हवा,
पेड़ों में घोंसले,अखबारों में सच्चाई,राजनीति में नैतिकता
प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी

क्या कुम्हार, धर्म निरपेक्षता और
एक दुसरे पर भरोसे को बचाने के लिए
नहीं किया जा सकता संविधान में संशोधन

सरदार जी, आप तो बचाइए अपनी पगड़ी
और पंजाब का टप्पा
मुल्ला जी, उर्दू के बाद आप फ़िक्र करें कोरमे के शोरबे का
ज़ायका बचाने का

इधर मैं फिर एक बार करता हूँ प्रयत्न
कि बच सके तो बच जाये हिंदी में समकालीन कविता


कविता_उदय प्रकाश



_निशांत कौशिक



11 comments:

सागर ने कहा…

लक्षण ठीक नहीं हैं बॉस...

कम उम्र में प्रौढ़ होने का खामिआजा भुगत सकते हो... और इस में तुम अकेले नहीं हो.... जितनी बातें तुमने लिखी हैं, उनसे सरोकार मेरा भी है और हम भी उन्ही को पढ़ कर बड़े हुए, चेतन भगत को व्यावसायिक तरीके से ही समझ सकते हैं, लेकिन अब चलते भी वही हैं...

जिस बो (अंडमानी) भाषा का जिक्र किया है वो एक पत्रिका में भी पढ़ा था... जानकार दुःख हुआ, भला हो JNU से भाषा विभाग का कम से कम इतना तो पता चला वरना ... शुक्रिया

सागर ने कहा…

"ष" NCERT की किताबों से हटाई जा रही है...

लेख और कविता दोनों बेहद पसंद आई निशात.

Amitraghat ने कहा…

"बहुत ही ज़बरदस्त आलेख और बेहतरीन कविता...."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com

निर्झर'नीर ने कहा…

sundar aalekh or saargarbhit kavita

डॉ .अनुराग ने कहा…

क्या किसी भाषा का अस्तित्व सिर्फ कहानी,उपन्यास,कविता पर टिका हुआ है " ?

इस सवाल से अक्सर मै भी रूबरू होता हूँ ओर कई बार सोचता हूँ जिन कहानियो ...लेखको से मै पहली बार परिचित हुआ सिर्फ इसलिए के उनमे से कुछ मेरे स्कूल के कोर्स में थे ....खिडकिया खुली ओर उनके रास्ते मैंने नयी दुनिया नया आसमान खोजा .....पर उनका क्या जो मेरे हम उम्र थे मेरे साथ खेलते बूझते बड़े हुए ....कुछ हम पेशा बने ...उन्होंने अंग्रेजी के नोवल पढ़े क्यूंकि वे मिशनरी स्कूल में पढ़े ...तो क्या बुनियाद भी किसी शौक का सबब बनती है ?क्या सोच भी किसी रास्ते के तहत सफ़र करती है ?
मुझे अक्सर प्रतीत हुआ है जब किसी को क्लिष्ट हिंदी बोलते सुनता हूँ अक्सर दूसरे कहते है जरूर पढने लिखने वाला व्यक्ति होगा ..यानी भाषा की जिम्मेवारी एक तबके पर धकेल दी गयी है ओर उसे निर्वाह करना है .....नए वक़्त में भाषा में प्रदूषण तो है ....पर इसका एंटी डोट भी खुद निकलनाहोगा

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गहरा चिंतन, शोध पूर्ण लेख और प्रभावी रचना ....
भाषा की शैली का लुप्त होना ... किसी प्रजाति के लुप्त होने जैसा ही है ....

दर्पण साह ने कहा…

चिंता करो मूर्धन्य " ष " की
किसी तरह बचा सको तो बचालो "ङ"
देखो,कौन चुरा कर लिए चला जा रहा है खड़ी पाई
और नागरी के सारे अंक
जाने कहाँ चला गया ऋषियों का " ऋ "

उदय प्रकाश की हत्या और उसका मरता हुआ बन्दर याद आ रहा है, यूँ की मानो उसने ही अंतिम बार, 'आह' बोला हो.
'ह' तो शुद्ध घोष व्यंजन है...
दुनियाँ की सारी भाषाओँ में ये होता भी नहीं है.
कोई एक ऐसी भाषा कम से कम प्रलय तक बच जाये जिसमें आह साफ़ सुनाई दे.

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

अच्छी भाषाए कभी नहीं मरती.उनका वजूद बना रहता है किसी न किसी कारन से.उन्हें बना रहना भी चहिये..

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra) ने कहा…

भाई.. आपके बारे में ढूँढता हुआ यहाँ तक पहुँचा.. अभी जल्दी में हूँ, इसलिये बस एक भाषा को श्रद्धाँजलि देकर जा रहा हूँ.. शेष बाद में!

बहुत जल्द लौटूंगा..!

Dr.Kumar Vishvas ने कहा…

आप के स्नेह के लिए आभार ...

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ताहम........