शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

इक मकतब होते हैं बच्चे...?


बच्चे जब होते हैं बच्चे
ख़ुद में रब होते हैं बच्चे

सिर्फ़ अदब होते हैं बच्चे
इक मकतब होते हैं बच्चे

एक सबब होते हैं बच्चे
ग़ौरतलब होते हैं बच्चे

हमको ही लगते हैं वरना
बच्चे कब होते हैं बच्चे

तब घर में क्या रह जाता है
जब ग़ायब होते हैं बच्चे!

विज्ञानव्रत की ये रचना, मेरी सबसे अधिक पसंदीदा रचनाओं में से एक है। मगर चरितार्थ होते-होते ये रचना मुझे फिर निराश कर देती है। क्यूंकि इसमें जिन बच्चों की बात की जा रही है, जैसे कि वो बच्चे किसी गुजरी हुई सदी के बच्चे थे। क्यूंकि इस सदी में ४-५ उम्र के बच्चे जितने समझदार किसी वास्तविक संगीत कार्यक्रम में हो सकते है, उतने समझदार और कहां हो सकते है, इनकी समझदारी का इज़ाफा कैसे और कौन करता है, मैं संकेतात्मक भाषा के सहयोग से अपने साथ बीती एक घटना को सामने रख कर बता सकता हूँ।

जीवन में रोजाना होने वाली आपाधापी में बहुत कुछ ऐसा हो जाता है, जो अपने साथ सारी सामाजिक व्यवस्था को प्रश्नचिन्ह के साथ लेकर खड़ा हो जाता है। ऊपर कही बात मेरे साथ आखिर गुज़र ही गयी। हुआ यूँ कि आज (२०-०२-२०१०) को रोज़ की तरह शाम को शायद ८:३० के आस पास घूमने के बाद एक दोस्त के साथ गाड़ी में घर को लौट रहा था, गार्डन से निकलते ही गली के नुक्कड़ पर एक बिजली पोल के नीचे एक बच्ची को देखा जो लेटी हुई थी, और उसके साथ एक और बच्ची जो शायद कह रही थी "क्या हो गया, उठो" ? या शायद ऐसा ही कुछ। एक पल को मन किया कि रुकूँ, मगर हम आगे निकल गए, आगे जाकर मैंने दोस्त से कहा कि "शायद वह बच्ची भूखी है", और जेब में पैसे भी है. हमें लौटना चाहिए, और निकेत (दोस्त) ने बिना देर करे गाड़ी को मोड़ लिया। हमने जाकर देखा कि वह बच्ची उठकर बैठी हुई थी, और उसके साथ एक बच्ची और थी जो पहले उसे "उठने" को कह रही थी। और वहीं नज़दीक में एक मैले से दांत वाला एक व्यक्ति खड़ा था, हमने बच्ची से पूछा कि "उसे क्या समस्या है", बच्ची शायद ४ साल की थी, रोते हुए बच्ची ने बताया कि "एक चुड़ैल उसका गला मसक (दबा) रही थी", बच्ची की ये बात सुनकर तो एक बार माथा ठनक गया, कि चार साल के बच्ची ऐसी बातें कर रही है, थोड़ी ही देर में उसके साथ दूसरी बच्ची ने कहा, कि वह जो आदमी नज़दीक खड़ा है (मैले दांत वाला) वह निकेत के द्वारा पूछने पर उन बच्चियों को अपना भाई बता रहा था, और बच्ची इस बात से साफ़ इंकार कर रही थी कि "वह आदमी उनका भाई है" उस समय मैं बच्चियों के लिए फल खरीद रहा था नज़दीक में ही। निकेत ने रोती हुई बच्ची की आँखों में आँखें डालकर कहा, "सच बताओ क्या हुआ है, चुड़ैल वुडैल कुछ नहीं होती" अचानक बच्ची ने कहा कि "इस आदमी ने ही रोती हुई बच्ची को कुछ खिलाया है जिससे उसे घुटन हो रही है", निकेत ने उस लड़के को चार पांच थप्पड़ मारकर पूछा कि वह कहाँ का है ? उसने क्षेत्र का नाम बेलबाग (जबलपुर का रेड लाईट एरिया) बताया। और निकेत ने झट ही बचियो से कहा कि "चलो गाड़ी में बैठो, नज़दीक ही पुलिस थाना है वहां छोड़ देते हैं" क्यूंकि बच्ची को घर के बारे में पता नहीं था, वह बार बार गलत पता बता रही थी। पुलिस का नाम सुनते ही वह मैले से दांत वाला युवक भाग खड़ा हुआ। और बार - बार आग्रह करने पर भी वह बच्ची हमारे साथ न हुई, और "चुड़ैल - चुड़ैल" कहते हुए नज़दीक के हनुमान मंदिर में चली गयी माथा टेकने। बच्ची की इस प्रतिक्रिया से खिन्न निकेत ने कहा चलो निशान्त गाड़ी में बैठो, घर चलो। हम घर आ गए और माँ-पिताजी के सामने बात रखने पर उन्होंने हमारी इस प्रक्रिया के विरोध में प्रतिक्रिया दी। जो हम दोनों को अत्यधिक निराश कर गयी।

यहाँ सवाल सिर्फ उस घटना का नहीं, पूरी व्यवस्था का है जो ४ सालां बच्ची से कहलवा रही है कि "उसका गला किसी चुड़ैल ने दबाया", और इस चार साल की बच्ची की यह समझ कि उसने उस मैले दांत वाले युवक के सामने ही कह दिया कि यह हमारा भाई-वाई नहीं इसने ही हमें कुछ खिलाया है। और तीसरी बात कि, उस युवक को नकारने के बाद उसने हमारी पुलिस वाली बात के आग्रह को भी नकारा, और अपनी समझ से हनुमान मंदिर में चली गयी। यह सचमुच एक ज़ोरदार थप्पड़ है, उस दौर पर जो अपने आप को विकास जैसे शब्दों से घेरे हुए है, और बच्ची के मन में चुड़ैल वाली भावना के साथ साथ वह यह भी समझ गयी, कि तथाकथित ईश्वर के पास जाना सही होगा। अगर हम बाल शिक्षा और अन्धविश्वास विरोधी नारे लगायें तो ये इन्सिडेंट ज़रूर पढना चाहिए। ये अंधविश्वास नहीं, हमारी रगों में भरा हुआ विश्वास है, जो बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की समूची उम्र को निकम्मा बनाते हुए, उनकी स्वतंत्र, सुपक्ष निर्णय लेने की क्षमता को हर पल तोड़ रहा है। अन्धविश्वास को ख़तम करने से पहले, विश्वास को ख़तम करना चाहिए। ये बच्चे जिनको रोने-हंसने के सिवा किसी अन्य बातों से सरोकार हो सकता, ये दुश्मन के रूप में चुड़ैल और रक्षक के तौर पर ईश्वर को इस उम्र में कैसे चुन सकते हैं। शायद भारत की भावी पीढ़ी के सपने, यही से उग रहे हैं। और अगर यही सपने उग रहे हैं तो भविष्य के एक अंग के निकम्मे होने की गारंटी कम से कम में तो ले ही लेता हूँ। यह सिर्फ एक लेख नहीं हर पाठक के मन में इस पूरी घटना के प्रति उठती खीझ को सामने रखवाने का इक्षुक भी है। राजेश जोशी और मजाज़ लखनवी की रचनाओं के साथ लेख समाप्त करता हूँ। इस घटना के प्रति चल रहे मानसिक द्वंद्व को सामने रखने के लिए, यह दोनों रचनायें कारगर हैं।


कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

सुबह सुबह


बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह

भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना

लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह


काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?


क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें

क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं

सारी रंग बिरंगी किताबों को

क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने

क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं

सारे मदरसों की इमारतें

क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन

खत्‍म हो गए हैं एकाएक

तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?

कितना भयानक होता अगर ऐसा होता

भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह

कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल


पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए

बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे

काम पर जा रहे हैं।

_राजेश जोशी

इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बाहें पतली गर्दन
भोर भये मन्दिर आई है
आई नहीं है, माँ लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
ठोडी तक लट आई हुई है
यूँ ही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
कैसी सुंदर है क्या कहिये
नन्ही सी इक सीता कहिये
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चाँद का टुकडा फूल की डाली
कमसिन, सीधी, भोली भाली
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छत देख रही है
माँ बढ़कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हंस देती है
हँसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदिर में
मन उसका है गुडिया घर में

_मजाज़ लखनवी


__निशान्त कौशिक

6 comments:

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

आप एक बार में ही इतना कुछ दे देते हैं...
झकझोरने के लिए...
कि समझ नहीं आता...कहां फिर-फिर ड़ूबें...

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं..
इस पंक्ति का कटाक्ष हम सब पर है..
धर्म में आस्था अंधविश्वाश का रूप ले रही है..
और हमारी प्रक्रिया के विरोध में प्रतिक्रिया दी जाती है.
हम चाहते हुए भी कुछ कहाँ कर पते है.
कल इक कहानी पढ़ रही थी.कहानी ही कहूंगी..तीन लोग नदी के किनारे बैठे हुए थे.तभी कोई नदी में बहता दिखाई देता है.वो उसे बाहर निकालते है और बेहोश पाते है.कोशिश करते है पर होश में नहीं आता.उसे बचाना चाहते है पर पुलिस के डर से उसे तीनो फिर पानी में बहा देते है..फिर रात भर सो नहीं पाते...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आपकी पोस्ट और तीनो रचनाएँ झंझोड़ गयी अंदर तक ... आज बचपन ऐसा क्यो है ... शायद हम सभी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं ... खुला वातावरण नही देते बच्चे को ... अपनी मान्यताओं से बुना संसार देते हैं उसके खाली मन को ...

सदा ने कहा…

बहुत कुछ कह दिया आपने इस प्रस्‍तुति में ।

Unknown ने कहा…

sHAYAD YE BAAT AB BHAYANAK HO GAI HAI "BACCHE MAN KE SACCHE"... BAAKI TO AAP SAMAJH HI GAYE HONGE.....JO DEKHA JO SUNA BAS WAHI MANTE HAI...

"BACCHE MAN KE SACCHE"

NIKET

सागर ने कहा…

पिछले ३ दिनों में कई बार यहाँ आया और गया ... किन्तु आपने कमेन्ट की शर्त ही ऐसी लगायी है की कुछ कहते नहीं बन रहा ... मुझे लगता है यहाँ बस पढ़कर निकल जाने वाली बातें हैं ... मेरे ज्ञान का लेवल इतना ऊँचा नहीं दोस्त.

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ताहम........