रविवार, 7 मार्च 2010

फायरबाख पर निबंध

मार्क्स का उपरोक्त जर्मन कथन दर्शन की दुनिया में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है, १८४५ मेंफायरबाख पर मार्क्स ने आलोचनात्मक लेख लिखा फायरबाख के इस निबंध के अंत में मार्क्स ने उपरोक्तकथन को प्रस्तुत किया।

फायरबाख जर्मन दार्शनिक थे। फायरबाख का मुख्य कार्य क्षेत्र धर्म की तात्विक औरभौतिकवादी मीमांसा है, जो कि धर्म के व्यवहारिक कार्य क्षेत्र और उसके आध्यात्मिक आवरणको भौतिकवादी तरीके से प्रस्तुत करती है, फायरबाख के इस दृष्टिकोण में मुख्य समस्या धर्मके सामाजिक आवरण की भौतिकवादी तथा उसके भाववाद को अपेक्षित समीक्षा के विरोधक्षेत्र में स्थापित करती है, सरल शब्दों में फायरबाख (फ्वारबाख) धर्म की सामाजिक भूमिकाको भौतिकवादी दृष्टिकोण से तथा उसके आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रत्ययवादी चिंतन के मोड़ परखड़ा कर देते हैं। इससे समाज में क्रियाशील धार्मिक ढांचे भाववाद के पक्ष में रखकर अपनेआप को आलोचना से मुक्त कर लेते हैं। मार्क्स का ये निबंध फायरबाख के दृष्टिकोण कीआलोचना है, और मार्क्स का ये दृष्टिकोण धर्म की सामाजिक भूमिका को भौतिकवादीदृष्टिकोण से स्पष्ट करता है भाववाद को साथ में आलोचित करते हुए। इस लेख कामहत्त्वमार्क्स के द्वारा लिखा जाना नहीं है,और न ही मार्क्सवादी दृष्टिकोण का इसमें कुछअनुपात है, यह भौतिकवादी नज़रिए की सहायता से की गई आलोचना तो है ही बल्कि धर्म केसभी सक्रीय छद्म हिस्सों में कड़ा प्रहार भी है। आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा दर्शन के क्लिष्ट शब्दों से परिपूर्ण यह लेख पढने में कुछ दुष्कर हो सकता है। मगर महत्वपूर्ण होने की वजह से इसे यहाँ प्रस्तुत करना यह लेख पाठको के लिए अत्यंत आवश्यक हो सकता है।

_निशांत कौशिक

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अब तक के सारे भौतिकवाद की - जिसमें फायरबाख का भौतिकवाद भी शामिल है - की मुख्य त्रुटि यह है कीवस्तु,वास्तविकता तथा एन्द्रियता को केवल विषय या अनुध्यान के रूप में कल्पित किया जाता है, न कि मानव केइन्द्रियगत क्रियाकलाप, व्यवहार के रूप में। इसका परिणाम यह हुआ कि क्रियाशील पक्ष भौतिकवाद द्वारा नहीं,बल्कि प्रत्ययवाद द्वारा विकसित किया गया - किन्तु मात्र अमूर्त रूप में, क्योंकि प्रत्ययवाद वास्तविक इन्द्रियगतक्रियाकलाप से सर्वथा अपरिचित है। फायरबाख विचार-वस्तुओं से वास्तव में विभेदित इन्द्रियगत वस्तुओं कोचाहते हैं, पर वह स्वयं मानव क्रियाकलाप को वस्तुनिष्ठ क्रियाकलाप के रूप में नहीं देखते। इसीलिए अपनी पुस्तकईसाई धर्म का सार में वह सैद्धांतिक रुख को ही एक मात्र सच्चा मानवीय रुख मानते हैं, जबकि व्यवहार की प्रतीतिका निकृष्ट प्रवंचक रूप ही मानते व सिद्ध करते हैं। इसीलिए वह "क्रांतिकारी" तथा "व्यवहारिक - आलोचनात्मक" क्रियाकलाप का महत्त्व नहीं समझ पाते।

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यह प्रश्न, कि क्या वस्तुनिष्ठ सत्य को मानवीय चिंतन का सहज गुण माना जा सकता है, सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक प्रश्न है। विवहार में मनुष्य को अपने चिंतन की सत्यता, याने यथार्थता एवं शक्ति, उसकी इहपक्षता को प्रमाणित करना पड़ता है। व्यवहार से पृथक रूप में चिंतन की यथार्थता अथवा यथार्थता सम्बन्धी विवाद कोरा पंडिताऊ (scholastic) प्रश्न है

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यह भौतिकवादी सिद्धांत कि मनुष्य परिस्थितियों तथा शिक्षा - दीक्षा की उपज है, और इसीलिए परिवर्तित मनुष्य भिन्न भिन्न परिस्थितियों एवं भिन्न शिक्षा-दीक्षा की उपज है, इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियों को मनुष्य ही बदलते हैं और स्वयं शिक्षा और स्वयं शिक्षक को शिक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता होती है। अतः यह निष्कर्ष सिद्धांत अनिवार्यतः समाज को दो भागों में विभक्त कर देने के निष्कर्ष पर पहुँचता है, जिनमें से एक भाग समाज के ऊपर होता है। परिस्थितियों के परिवर्तन तथा मानवीय क्रियाकलाप का संयोग केवल क्रांतिकारी व्यवहार के रूप में ही विचारो तथा तर्कबुद्धि द्वारा समझा जा सकता है।

फायरबाख धार्मिक वियोजन (feuerbach religious self-dissociation) - अर्थात जगत की दो दुनिययों, एक काल्पनिक, धार्मिक दुनिया तथा दूसरी वास्तविक दुनिया, में विभाजन - के तथ्य से आरम्भ करते हैं। उन्होंने काम यह किया है कि इस धार्मिक जगत को उसके लौकिक आधार में विलयित कर दिया। वह इस तथ्य को नज़रन्दाज कर देते हैं कि उपरोक्त कार्य की पूर्ति के बाद मुख्य कार्य फिर भी अधुरा रह जाता है। इसीलिए कि यह बात कि भौतिक आधार स्वयं को स्वयं से पृथक कर लेता है और जाकर आसमान में स्वयं को एक स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में स्थापित कर लेता है, केवल इस लौकिक आधार के आत्मविभाजन व आत्मविरोध द्वारा ही समझी जा सकती है। अतः लौकिक आधार को पहले उसके अंतर्विरोध की अवस्था में समझा जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, एक बार यह सिद्ध हो जाने पर कि पवित्र परिवार की जड़ वास्तव में पार्थिक परिवार है, पार्थिव परिवार की सिद्धांततः आलोचना की जानी चहिये और फिर व्यवहार में उसका क्रांतिकारी रूपांतरण किया जाना चाहिए।

5

अमूर्त चिंतन से असंतुष्ट फायरबाख इंद्रिय अनुध्यान (प्रत्ययवादी धारणा की मदद से कल्पित विचारों के समक्ष चिंतन को पुनः पुनः परिभाषित करना) की शरण लेते हैं, पर वह एन्द्रियता को व्यवहारिक मानव-इंद्रिय क्रिया के रूप में नहीं विचारते।

फायरबाख धार्मिक सारतत्त्व को मानवीय सारतत्त्व में विघटित कर देते हैं। पर मानवीय सारतत्त्व कोई अमूर्त तत्त्व नहीं है जो प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित हो।
अपनी यथार्थता में वह सामाजिक संबंधों का समुच्चय है। फायरबाख जो इस यथार्थ सारतत्त्व की समीक्षा नहीं करते, परिणाम स्वरूप इस बात के लिए बाध्य होते है कि :

१.एतिहासिक प्रक्रिया से अपकर्षित करके धार्मिक भावना को स्वयंस्थित वस्तु के रूप में प्रतिष्ठित करें और एक अमूर्त - पृथक्कृत - मानव व्यक्ति की पूर्व धारणा करें।
२. उनकी दृष्टि में मानवीय सारतत्त्व केवल वंश की शक्ल में समझा जा सकता है, अर्थात मूक अन्तर्निहित सामान्यता(अर्थात सामान्य तौर पर मानव समाज में अंधी प्रचलित धारणा) के रूप में जो केवल प्रकृत्या नाना व्यक्तियों को ऐक्य्बद्ध कर देती है।

परिणाम स्वरूप, फायरबाख यह नहीं देख पाते कि "धार्मिक भावना" स्वयं ही एक सामाजिक उपज है तथा जिस अमूर्त व्यक्ति का उन्होंने विश्लेषण किया, वह वस्तुतः समाज की एक विशेष अवस्था (निश्चित रूप) का प्राणी है।


सामाजिक जीवन मूलतः व्यवहारिक है। सारे रहस्य, जो सिद्धांत को रहस्यवाद के गलत रस्ते में डाल देते हैं, मानव व्यवहार में, और इस व्यवहार के संज्ञान(Cognizance) में, अपना बुद्धि संगत समाधान पाते हैं।

अनुध्यानवादी भौतिकवादी की - अर्थात भौतिकवाद की जो एन्द्रियता को व्यवहारिक क्रियाकलाप नहीं मानता - " चरम उपलब्धि"नागरिक समाज में पृथक व्यक्तियों का अनुध्यान है ।

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पुराने भौतिकवाद का दृष्टि - बिंदु "नागर" समाज है, नये भौतिकवाद का दृष्टि बिंदु मानव समाज या समाजीकृत मानवजाति है।

११
दार्शनिकों ने विभिन्न विधियों से दुनिया की केवल व्याख्या ही की है, लेकिन प्रश्न दुनिया को बदलने का है।


_साभार - (परिशिष्ट) लुडविग फायरबाख और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अंत।

निबंध के बारे में - फायरबाख के दर्शन पर केन्द्रित इस निबंध की रचना कार्ल मार्क्स ने १८४५ के बसंत मेंब्रसेल्स में की थी। यह निबंध उनकी १८४४-१८४७ की नोटबुक में शामिल है। सबसे पहले इसे फ्रेडरिक एंगेल्स नेअपनी कृति लुडविग फायरबाख और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अंत में परिशिष्ट के रूप में शामिल किया था।

अंत में चंद पंक्तियों के साथ लेख समाप्त करता हूँ, यह पंक्तियाँ मूल जर्मन में लिखी गई है, इसके अनुवादक औररचनाकार से मैं पूर्णतः अनभिज्ञ हूँ।


"तय मानो, तुम्हारी दासता के लिए
मैं अपने विपदाग्रस्त भाग्य से
मुक्ति नहीं चाहूँगा
देवराज का चाकर बनने से बेहतर
होगा इस चट्टान का चाकर होना। "

4 comments:

Randhir Singh Suman ने कहा…

"तय मानो, तुम्हारी दासता के लिए
मैं अपने विपदाग्रस्त भाग्य से
मुक्ति नहीं चाहूँगा
देवराज का चाकर बनने से बेहतर
होगा इस चट्टान का चाकर होना। " nice

समय ने कहा…

महत्वपूर्ण कार्य। और आलेख।

अंतिम पंक्तियों के बारे में अभी पढ़ा था, जो जानकारी थी वह यूं है, इससे ज्यादा नहीं है।

दर्शन के इतिहास में प्रोमीथियस सर्वाधिक प्रखर संत व शहीद हुए हैं। प्रोमीथियस द्वारा देवताओं के सेवक हरमीज़ को दिया गया एक उत्तर था यह:

"तय मानो, तुम्हारी दासता के लिए
मैं अपने विपदाग्रस्त भाग्य से
मुक्ति नहीं चाहूंगा
देवराज का चाकर बनने से बेहतर
होगा इस चट्टान का चाकर होना।"

शुक्रिया।

सागर ने कहा…

देते जाओ ज्ञान, हम जुटा रहे हैं.

डॉ .अनुराग ने कहा…

अद्भुत है .....अलबत्ता सभी बातो से सहमति नहीं रखी जा सकती .क्यूंकि समय ओर काल के साथ योग ओर दर्शन की व्याखाये भी बदल जाती है ......वैसे भी मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसके शरीर का समय के साथ इवोल्यूशन हुआ ओर दिमाग के दुरूपयोग में उसने महारत हासिल कर ली है .....

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ताहम........