गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

पर्याप्त आध्यात्म


" विचार करना, कविता में सबसे बड़ा अवरोधक तत्व है " - खलील जिब्रान

जिब्रान का ये कथन कोई साहित्यिक नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ा रहा है, न ही यह कह रहा है, कि विचार से उसका आशय सिर्फ विचार से है। यह थोड़ी अटपटी बात है। खलील जिब्रान,ताओ लाओत्से, कीट्स, टी एस एलियट, येहूदा आमीखाई, शुन्तारो तानीकावा,अमृता प्रीतम,दास्तोएवस्की,पाब्लो नेरुदा, लू शुन और ऐसे ही कुछ रचनाकार/दार्शनिक जो लेखन शैली, और बिम्ब की भिन्नता से अलग अलग पहचाने जाते हों, मगर इन सब में एक अभिन्नता है जो किसी तत्व के प्रति अभिभूत होने के बाद, उसे अभिभूत करने वाली सहज और अद्भुत वैचारिकता (खलील जिब्रान के कथन को पुनः समझें) के साथ सामने रखना। जो किसी धारा विशेष में न होकर समूची नदी में बहें। ये सिर्फ साहित्य की चर्चा की बात नहीं है, मसलन अमृता शेरगिल की रंगों के प्रति मनोवैज्ञानिक तीव्र दृष्टि होने के बाद भी, वे किसी अमूर्त साधारण चित्र को देखकर भी, चित्रकार की मानसिक पृष्ठभूमि समझ जाती थीं। और रंगों के प्रति यह लगाव इस क़दर था कि वे चित्रों में चलाई गयी कूचियो की आकृतियों को देखकर बता सकने में संभव थीं कि यह चित्र मतीस,ब्राक,गोगां,गॉग, रवीन्द्र नाथ ठाकुर या किस चित्रकार का है।

पुर्तगाल की सरजमीं ने भी एक ऐसे सितारे को जन्म दिया, जिसे साहित्य जगत फर्नांदो पेसोआ नाम से जाना गया। फर्नांदो पेसोआ से हिंदी जगत बहुत अधिक परिचित नहीं था, क्यूंकि हिंदी में संवाद प्रकाशन के अलावा शायद फर्नांदो पेसोआ की रचनाओं पर काम नहीं किया गया था, और संवाद प्रकाशन ने हाल ही में "धरती की सारी ख़ामोशी" शीर्षक से पेसोआ की चयनित कविताओं का प्रकाशन किया, और कविताओं का बेहतरीन अनुवाद अशोक पाण्डे (नैनीताल) द्वारा किया गया।
फर्नांदो पेसोआ ने अपने जीवन में कई छद्म नामों से कविताएं, संगीत समीक्षा,जीवनी आदि लिखी। अपने छद्म नामों के प्रति फर्नांदो पेसोआ के विचार कुछ यूँ थे -
"छद्मनाम से की गयी रचना किसी भी लेखक की हो सकती है जिसे वह किसी दूसरे नाम से लिखता हैहैटरोनिम ( छद्मनामों से नाम लिखने के तरीके को फर्नांदो पेसोआ ने इस शब्द से संबोधित किया इसका अर्थ फर्नांदो के इन वाक्यों में है) की रचना किसी ऐसे लेखक की होती है जो अपने व्यक्तित्व के बहार जा कर लिखता है : यह उस के द्वारा निर्मित एक बिलकुल अलहदा व्यक्तित्व की रचना होती है -- ठीक उसी तरह जैसे किसी भी नाटक का कोई पात्र कुछ संवाद बोले "।

फर्नांदो पेसोआ के अलावा उन्होंने अल्बेर्तो काइरो, आलवारो दे काम्पोस,रिकार्दो रईस, बर्नान्दो सोआरेस आदि छद्म नामों से रचना की। और हाँ नाम की भिन्नता के साथ उनकी लेखन शैली की एक विधा होते हुए भी दृष्टि में अंतर आ जाता था, यह पेसोआ की सबसे खुबसूरत खासियत थी।

एक
जगह पेसोआ अपने कविता में कहते हैं -

मुझे विश्वास है कि दुनिया एक फूल की तरह है
क्यूंकि मैं इसे देखता हूँ - इसके बारे में सोचता नहीं
क्यूंकि, सोचना समझना नहीं होता
दुनिया इसीलिए नहीं बनाई गई की हम इसके बारे में सोचें
(निगाह की बीमारी होती है सोचना)
यह इसीलिए बनाई गई कि हम इसे देखें और इसके साथ तार बैठाएं।

एक जगह और पेसोआ कहते हैं

वस्तुओं का रहस्य ?
कैसे जान पाउँगा क्या है वह ?
इकलौता रहस्य यही है कि कोई ऐसा भी है
जो रहस्य के बारे में सोच सकता है
ऐसा एक कोई जो धूप में खड़ा हो आँखें मूंद लेता है
यह जानना बंद कर कि सूरज क्या है ?
वह तमाम गर्मी भरी चीज़ों के बारे में सोचने लगता है
फिर वह अपनी आँखें खोलता है और
सूरज को देखता है
-- अब वह कुछ नहीं सोच पाता
क्यूंकि सूरज की रौशनी विचारों से कहीं अधिक मूल्यवान है
सूरज की रौशनी नहीं जानती कि वह क्या कर रही है
और इसीलिए नहीं भटकती
और वह सभी के लिए है और अच्छी है


पेसोआ के जीवन पर और अधिक रेखा चित्र खींचने से बेहतर उनकी कविताओं को रखना ज़रूरी होगा, इस सोच के साथ कि कविता कवि को रचती है।

१.

कुछ नहीं बनता कुछ नहीं से, हम कुछ नहीं है
सूरज और हवा के बीच थोड़ी देर को हम स्थगित कर देते हैं
सांस घोटने वाले अँधेरे को जो हमें दबाता है
और जो यह विनम्र धरती हम पर लादती है
वे स्थगित वंशवृद्धि करती मृत देहें

बनाए हुए नियम, पाले गए कानून, ख़त्म की गयी कविताएं --
हर किसी को उचित कब्र मिलती है
अगर हम भी जिन्हें दोस्ताना सूरज रक्त प्रदान करता है
अपने अंत तक पंहुचते हैं
तो वे क्यों नहीं पहुचेंगे ?
हम कहानी सुनाती हुई कहानियां है बस


२.

भारहीन, मुलायम, चिड़िया का गीत जल्दी जल्दी चढ़ता है
आसमान में
दिन की शुरुआत के वक़्त
मैं सुनता हूँ - वह नहीं रहा अब
ऐसा लगता है कि वह इसीलिए थम गया
क्यूंकि मैंने उसे सुना


मुझे कभी भी, कभी भी किसी चीज़ में नहीं मिला है --
भोर के समय, शानदार धूप में
सुनहरे सूर्यास्त में
वह सुख जो बना रहता है
अवस्तुता के परे - वह अफ़सोस खोने का उसका
" आनंद ले पाने के पहले "


३.

दिखावा करते हैं सारे कवि
और इतना वास्तविक होता है उनका दिखावा
कि वे उस दर्द का भी दिखावा कर लेते हैं
जो उन्हें वास्तव में महसूस हो रहा होता है

और वे जो उनका लिखा पढ़ते हैं
पढ़ते हुए, पूरी तरह महसूस करते हैं
उसका वह दर्द नहीं जो दूना होता है
बल्कि उनका अपना,
जो पूरी तरह काल्पनिक,
सो इन पटरियों पर लगातार चक्कर काटती हुई
दिमाग के मनोरंजन के लिए चाबी लगी वह नन्ही रेलगाड़ी चलती जाती है
जिसे हम आदमी का दिल कहते हैं

.

दूसरों के पास वह सब होना चाहिए
जो हमसे छूट जाता है,
हमारी खोज में
जो पाया गया और जो नहीं पाया गया
दूसरो को अधिकार है उसे पाने का
जैसा भी नियति ने तय कर रखा हो

लेकिन उनके पास नहीं होना चाहिए
सुदूरपन का वह तिलिस्म
जो इतिहास बनाता है
परिणाम के तौर पर उनकी शान होती है
उधार की रौशनी में पाई हुई
साफ़ समर्पित चमक

५.

मुझे भयंकर ज़ुकाम हो गया है
सभी जानते हैं कैसे उलट पुलट जाता है
समूचे ब्रह्मांड का कारोबार भयंकर जुकाम से --
आप जीवन से जूझते हैं
और बड़े बड़े दार्शनिकों को भी छीकें आती हैं
मैं ने नाक पोंछते बिताया है आज का सारा दिन
मेरे सर में अजीब-सा-दर्द है
छोटे-मोटे कवि की यह खराब दशा है ?
आज मैं सचमुच ही एक छोटा - मोटा कवि हूँ

अलविदा परियों की मल्लिका !
तुम्हारे पंख सूरज के बने हुए थे और
मैं यहाँ पैदल चलता हुआ
जब तक मैं बिस्तर पर ना जा गिरुं मैं ठीक नहीं होऊंगा
ठीक तो मैं भी था भी नहीं
सिवाय जब-जब उल्टा पसरा रहा ब्रह्माण्ड पर
माफ़ करना...क्या भयंकर जुकाम है ! दरअसल यह जिस्मानी है
मुझे ज़रूरत है सच की और एस्प्रिन की

६.

वर्तमान में जियो,
आप कहते हैं, वर्तमान में जियो
पर मुझे वर्तमान नहीं चाहिए
मैं वास्तविकता चाहता हूँ
मुझे अस्तित्वमान चीज़ें चाहिए
समय नहीं, जो उन्हें नापता है
क्या है वर्तमान
यह भविष्य और भूतकाल के सापेक्ष कोई चीज़ है
यह ऐसी चीज़ है
जो दूसरी चीज़ों के अस्तित्व के कारण अस्तित्व में है
मुझे केवल वास्तविकता चाहिए, समयहीनता के साथ चीज़ें

मैं अपनी योजना में समय को शामिल नहीं करना चाहता

मैं चीज़ों को समयबद्धता के साथ नहीं देखना चाहता
मैं उनके बारे में सिर्फ चीज़ों की तरह सोचना चाहता हूँ
मैं उन्हें उन्ही से अलग नहीं करना चाहता
जैसे वे वर्तमान में उपस्थित हों

मुझे तो उन्हें वास्तविक चीज़ें भी समझना चाहिए
मुझे उन्हें कुछ भी नहीं समझना चाहिए
मुझे उन्हें देखना चाहिए
बस देखना चाहिए,तब देखना चाहिए
जब तक कि मैं उनके बारे में सोच भी सकूँ
उन्हें देखूं बिना स्थान और समय के देखूं
और जो देखने लायक है उसके अलावा सब कुछ हटा दूँ

यह है बोध का विज्ञान
जो कोई विज्ञान ही नहीं है

फर्नांदो पेसोआ की एक लम्बी कविता की बस एक पंक्ति के साथ इस कविता और लेख के लम्बे समन्वय वाली अनुभूति को ख़तम किया जाए।

क्या पर्याप्त आध्यात्म है इन पेड़ों में सिवा इस के कि वे हरे हैं - पेसोआ


निशांत कौशिक_


3 comments:

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

.फर्नांदो पेसोआ की कविता..दार्शनिकता...रह्सयवाद..सभी कुछ है..
देखना,सोचना और समझना तीनो ही अलग अलग है

दिखावा करते हैं सारे कवि
और इतना वास्तविक होता है उनका दिखावा
कि वे उस दर्द का भी दिखावा कर लेते हैं
जो उन्हें वास्तव में महसूस हो रहा होता है..
ऐसे जैसे मुलायम गरम रजाई में बैठ के नंगे पांव सर्दी में भीख मांगते बच्चे पे मार्मिक कविता लिख के रजाई में छुप के सो जाना..

डॉ .अनुराग ने कहा…

दूसरे आदमी को लफ्ज़ देना कविता है .....किसी लम्हे को पकड़ कर कागज पर बिठाना भी कविता है ....कवि का विरोध भी कविता है ......

... कल आलम जौकी ने किसी कविता को "पाखी "में रखा था अपनी बात के बीच में अभी याद नहीं .कल फिर आपसे बांटूंगा ...




मुझे कभी भी, कभी भी किसी चीज़ में नहीं मिला है --
न भोर के समय, न शानदार धूप में
न सुनहरे सूर्यास्त में
वह सुख जो बना रहता है
अवस्तुता के परे - वह अफ़सोस खोने का उसका
" आनंद ले पाने के पहले "
well said man...

दर्पण साह ने कहा…

विचार करना, कविता में सबसे बड़ा अवरोधक तत्व है - खलील जिब्रान

कई दिन हुए इसे मानना शुरू कर दिया है. सच !!
लिए जा रहा हूँ...

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