रविवार, 24 जनवरी 2010

कविता और बंदूक


रितेश की, इस कविता के साथ, धूमिल का एक कथन चस्पा कर सकता हूँ, कि "एक सार्थक कविता एक सार्थक वक्तव्य होती है" , या फिर फिरदौस का ये कथन, कि " एक मुकम्मल कविता एक मुकम्मल आदमी को खाने के बाद बनती है "। कविता परिस्थितियों के अनुसार अपनी परिभाषाएं खुद रचती है, कभी कला बनती है कभी शास्त्र, कभी उदगार, कभी अभिव्यक्ति। रितेश की कविता के आरम्भ में यह स्पष्टीकरण ज़रूर है, कि " कविता में आत्मा तो होती है, मगर शायद दिल नहीं होता" , कविता के अंत के "जुमलों" को किसी रहस्यवादी धारणा के साथ जोड़ना बिलकुल नाइंसाफी है, हाँ कविता इतना स्पेस ज़रूर देती है कि आप अपनी विचारधारा विकसित करके, आत्मा, विचार,मन और दिल के बारे में अपनी समझ के साथ द्वन्द कर सकें।


कविता के हाथ में बंदूक नहीं होती
कविता में आत्मा तो होती है ,
शायद
दिल नहीं होता।
अगर कहीं
कविता
के हाथ में होती बंदूक
और
सीने में कैसा भी दिल

तो
भाई,
तो वो पहली ह्त्या कर चुकी होती (
मेरी)
मैं उसपर हंसता हूँ ( पता नहीं उसपर या खुदपर )
कभी - कभी

वो मेरी एक मात्र प्रेमिका हुई
जिसके दिल नहीं है ।
अगर होता ,

तो मुझे विश्वास है,

कि
मैं कविता कभी न लिखता।


रितेश मिश्र_



Painting _ pablo picasso

3 comments:

सागर ने कहा…

बहुत दिनों बाद आये भाई,

अगर मैं गलत नहीं हूँ तो संभवतः रितेश की कविता आप पहले भी यहाँ पोस्ट कर चुके है (रंजीत के साथ मत खेला करो)... पिछले दिनों कविता पर एक लम्बी बहस एक जिद्दी धुन पर चली... जो कि एक सुखद अनुभव था...

रितेश की, इस कविता के साथ, धूमिल का एक कथन चस्पा कर सकता हूँ, कि "एकसार्थक कविता एक सार्थक वक्तव्य होती है" , या फिर फिरदौस का ये कथन, कि" एक मुकम्मल कविता एक मुकम्मल आदमी को खाने के बाद बनती है "। कविता परिस्थितियों के अनुसार अपनी परिभाषाएं खुद रचती है, कभी कला बनती है कभी शास्त्र, कभी उदगार, कभी अभिव्यक्ति। रितेश की कविता के आरम्भ में यह स्पष्टीकरण ज़रूर है, कि " कविता में आत्मा तो होती है, मगर शायद दिल नहीं होता" , कविता के अंत के "जुमलों" को किसी रहस्यवादी धारणा के साथ जोड़ना बिलकुल नाइंसाफी है, हाँ कविता इतना स्पेस ज़रूर देती है कि आप अपनी विचारधारा विकसित करके, आत्मा, विचार,मन और दिल के बारे में अपनी समझ के साथ द्वन्द कर सकें।

यह पंग्तियाँ दिल को छू गयीं... शुक्रिया... एहसास को शब्द देने के लिए...

डॉ .अनुराग ने कहा…

फिर भी सांस लेती है कविता बरसो तक

सुशीला पुरी ने कहा…

sagar ji ke shabdon ke saath........

एक टिप्पणी भेजें

किसी भी विचार की प्रतिक्रिया का महत्व तब ही साकार होता है, जब वह प्रतिक्रिया लेख अथवा किसी भी रचना की सम्पूर्ण मीमांसा के बाद दी गयी हो, कविता को देखकर साधुवाद, बधाई आदि शब्दों से औपचारिकता की संख्या बढ़ा देना मात्र टिप्पणी की संख्या बढ़ा देना है. ताहम के प्रत्येक लेख/रचना जिसमें समझ/असमझ/उलझन के मुताल्लिक़ टिप्पणी को भले ही कम शब्दों में रखा जाए, मगर ये टिप्पणी अपने होने का अर्थ पा सकती है.रचना के प्रति आपके टिप्पणी का मीमांसात्मक/आलोचनात्मक वैचारिक प्रस्फुटन इसके अर्थ को नए तरीके से सामने ला सकता है

ताहम........