गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

गाँधी और गांधीवाद


नहीं ये बिल्कुल भी सही जगह नहीं है, जब मैं गाँधी जी के जन्म से लेकर, नाथूराम गोडसे तक की मुलाक़ात का सचित्र वर्णन कराऊं। २ अक्टूबर ही नहीं १९४७ के बाद हर पल हर दिन गाँधी जी का दिया हुआ है, सो थोड़ा सा याद करना आवश्यक है. चूँकि १९४७ की आज़ादी में मुख्य हस्तक्षेप गाँधी जी का था, तो स्वाभाविक सी बात है कि आजादी का मुख्य कारण गाँधी जी ही बने, और जब हिस्से में आए देश की यथास्थिति का भी वर्णन करें तो गाँधी जी को भी याद करना वाजिब है।


वास्तव में गाँधी और गांधीवाद, गाँधी जी के जन्म से ही एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होते रहे, और तमाम अनुभवों के बाद अंततः गाँधी जी द्वारा ये घोषणा कर दी गई, कि सात्विक, मर्यादित,अहिंसक और शुद्ध विचारधारा ही मेरे पूर्ण दृष्टिकोण का परिणाम है। गांधीवाद में गाँधी जी के समकालीन भारत में तमाम परिवेश, विधान, विचार मौजूद थे, और इन सब की गांधीवाद में मौजूदगी मुख्यतः नज़र आती है, गांधीवाद से सहमति का आधार भी यही रहा कि उन सात्विक परिवेशों,परिधानों और विचारों का भारत में तिलिस्म छाया रहा, और गाँधी जी के अव्वल चरित्र में ये सारे तिलिस्म ही मौजूद थे, अतः भारत वासियों ने गांधीवाद की जी भर कर प्रशंसा की।


चूँकि भगत सिंह ईश्वर,धर्म,जातिवाद,पूंजीवाद, सामंतवाद आदि के घुर विरोधी थे, इस वजह से गाँधी जी ने भगत को कभी उत्तेजना से भरा हुआ जवान खून कहकर टाल दिया। मैं भगत सिंह पर केंद्रित अपने पूर्व लेख में स्पष्ट कर चुका हूँ, कि भगत सिंह की विचारधारा आज़ादी के बाद निश्चित तौर पर उभरने वाली राष्ट्रीय संकीर्णता जो कि आज हर क्षेत्र में है ही, के ख़िलाफ़ थी।


हमारे साथ बड़ी समस्या है कि हमने अपनी शैशव पीढी को आज़ादी संग्राम में हिस्सा लेने वाले हर व्यक्ति को "स्वतंत्रता संग्रामी" इन दो शब्दों के साथ बाँध दिया। ये बुनियाद यदि स्कूलों में बचपन से डाली जाए कि भगत सिंह के राष्ट्र स्वतंत्रता के विचार अलग थे तथा गाँधी के अलग। इन में से कौन सही था, कौन ग़लत या दोनों सही थे, दोनों ग़लत के बीच बच्चे ख़ुद अन्तर करेंगे।


भगत सिंह के साथ रहते हुए भी मैं बिल्कुल नहीं कह सकता की गांधीवाद से मैं पूर्ण रूप से असहमत हूँ, मैं बस असहमत इस बात पर हूँ कि सत्य-असत्य सिर्फ़ धार्मिक या सात्विकवादी विचारों से निश्चित किए जा रहे हैं। तो निश्चित ही हिंदू,मुसलमान और सभी धर्मों के अनुसार वे ईश्वर के बारे में तो एकमत होंगे मगर कर्मकांडों मे हर धर्म सत्य-असत्य की अलग व्याख्या करेगा। गाँधी जी की वैचारिक रुपरेखा में यही समस्या रही है कि सत्य-असत्य की व्याख्या के लिए वे उस युक्ति की सहायता लेते हैं जो कि अन्य युक्तिओं से कम से कम वैचारिक मतभेद रखती है। अपनी आसानी के लिए हम इसे धर्म भी कहते हैं।


जहाँ गांधीजी गीतावादी थे, चातुर्वर्ण व्यवस्था तथा हरिजन रूपांतरण के सहयोगी यहाँ भगत सिंह सत्य-असत्य की व्याख्या परिस्थिति के अनुसार निश्चित करते थे, और चातुर्वर्ण व्यवस्था के सख्त ख़िलाफ़। इस मुश्किल दौर में भी यदि गाँधी जी की पुस्तक " सत्य के प्रयोग " पढ़ी जाए तो सभी कुछ क्रमवार समझ आवेगा, और भगत सिंह के समस्त लेखों को पढ़कर, वैचारिकता का प्रतिशत कहाँ घटता है कहाँ बढ़ता यह भी समझ में आ जाएगा। धूमिल के चंद शब्दों के बड़े बिम्ब के साथ लेख समाप्त करता हूँ।




"हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता। यहां
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है

हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है"

"सुदामा प्रसाद पाण्डेय"


_निशांत कौशिक

4 comments:

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही सशक्त लेख रहा आपका। बहुत-बहुत बधाई

डॉ .अनुराग ने कहा…

इस देश के लिए दोनों प्रासंगिक थे ,महत्वपूर्ण थे .....ये ओर बात है भगत सिंह मेरे दिल के करीब ज्यादा है ....शायद इसलिए भी के उनकी उम्र महज़ तेईस साल थी ....जब वे फांसी पे चढ़े ..उन्होंने बचपन से जालियां वाला बाग की रूह को महसूस करके उसकी आग को अपने सीने में जलाए रखा .अपने विचार थोपे नहीं....
फिर ये भी सोचता हूं ...की एक आम आदमी भगत सिंह नहीं बन सकता इसलिए शायद उसने गांधी की राह चुनी...

डॉ .अनुराग ने कहा…

ओर हाँ कविता ने मुझे भीतर तक हिला दिया है .इसलिए इसे नोट कर लिया है अपनी डायरी में

सागर ने कहा…

दोनों के अपने -अपने आयाम हैं... सत्य के साथ मेरे प्रयोग पढता हूँ तो उनके लिए विशेषण मिलता है... आइन्स्टीन भी गलत नहीं कहते थे... यह दुनिया हैरत करेगी की इस धरती पर एक महामानव चलता था...

भगत सिंह... अपने आप में बेमिसाल थे... क्रांति की किताबें पढ़ कर वो स्पस्ट हो चुके थे... तपा दिया था उन्होंने खुद को... उन पर वो जुमला फिट बैठता है ...eat country, sleep country, think country.

धूमिल की कविता पढ़ कर ठेस तो लगती है पर गिरते नहीं अंतः संभल जाता हूँ... हैरत है रघुवीर सही, पाश और धूमिल एक क़तर में नज़र आते हैं और सच दिखाते हैं... काश ! मंटो भी कवितायेँ लिखते एक नाम और जुड़ जाता...

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