" रंजीत के साथ मत खेला करो " कविता स्वच्छ तर्क के साथ जमा की हुई नैतिक भाषा का पूरा दांव लगाने के बाद अंततः स्पष्ट करती है, कि पीड़ा की कुछ हद तक की जाने वाली शाब्दिक परिभाषा को बोध से जोड़कर कैसा चित्र बनता है, और चुनांचे पीड़ा का बोध ही पीड़ा को कह सकता है, इस आधार पर कहा जा सकता कि यह कविता पीड़ा का शाब्दिक पर्याय है, जो भावबोध, शाब्दिक हेतुवाद और साहित्य में उपस्थित होकर निभाए जाने वाले नियमों का चिट्ठा है ।
" रंजीत " शब्द का अर्थ यहाँ यथास्थिति में ग्रसित समाज से है, जो यथास्थिति में शामिल होने का दुःख नहीं करता साथ ही "स्वीकार" शब्द से जुड़कर लंबे दिलासे का सहयोगी बन जाता है, आजादी की घोषणा कर देता है। मूलतः यह रचना एक मूल्यांकन है, समाज के प्रति क्या है ?, क्या नहीं ? और क्या होना चाहिए ? के प्रति. रितेश मिश्रा की अधिकतम कविताओं को यदि समग्र रूप से समझा और पढ़ा जाए तो ये बात ज़ल्द समझ में आ सकती है।
हमारा अतीत तथा हर दौर आलोचना और गुणगान के साहित्य एवं अनुभवों में प्रचुरता से रमा हुआ है, और यदि पुनः आलोचना मात्र करने का दायित्व हम में से किसी को मिल जाए तो यह वही बात होगी कि " सत्तू उड़ा, पितरों को। " मार्क्स ने कहा था " दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या मात्र की है, असल सवाल यह है, कि इसे बदला कैसे जाए " मैं मार्क्स के कथन से पूरी तरह सहमत हूँ, क्यूंकि " रंजीत के साथ मत खेला करो " कविता भी वैयक्तिक अनुभवों की फहरिस्त में बोध हस्ताक्षर करती है, इससे और कुछ नहीं समझ एवं समझदारी के मध्य दो राय बनते हैं, पहला पलायन तथा दूसरा बदलाव, और मानने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि बदलाव सिर्फ़ विचारों एवं साहित्य में आया है, अगर यही प्रगतिशीलता है,तो माना जाए कि हम बहसों में अव्वल हैं, मगर बदलाव की कल्पना सिर्फ़ भगत सिंह की जीवनी पढ़कर कुछ समय का देशभक्ति उत्तेजन मात्र है।
अगर यह बोध पेशेवर बुद्धि से गुज़र जाए तो शायद तिरस्कार और ना जाने ऐसे ही कितने शाब्दिक आक्षेप द्वारा बाँध लिया जाएगा। केन्द्रीय बिम्ब यही है, कि अतीत के साथ समर्थता को बिना जोड़े स्वीकार कर लिया जाए तो " मेरी गलती कहाँ है " जैसे वाक्यों का आना सुलभ एवं वाजिब हो जाता है, यह भी कि " दिन भर जैसे किसी नशेड़ी ने नशा न किया हो " जैसी दैनिक बेचैनी, जो तोड़ तो रही है, मगर बेचैनी अपने आप को सही साबित करती है कि मुझे स्वीकार नहीं, प्रश्न यह कि क्या पलायन और बहस के मध्य कोई आन्दोलन फंसा हुआ है, जिसे न देख पाना मेरी अब तक की असमर्थता थी। घटाटोप वर्णन, तथा कविता के बाहर लांघकर बिना किसी दृष्टिकोण के समझा जाए तो बोधगम्यता के सामने शब्दों का बौना होना क्या होता है, समझ आ जाएगा। कविता के अन्तिम छोर में एक शब्द बहुत गहरे तथा प्रश्नवाचक रूप में सामने आ खड़ा हुआ है, " वही आवाज़"। यह आवाज़ दरअसल कविता लिखे जाने के पहले की स्थिति एवं प्रतिद्वंद्वियों से साम्य रखती हुई, प्रतिद्वंद्वियों द्बारा ही पलायन के लिए वातावरण निर्मित करने का माध्यम मात्र है। सांकेतिक रूप में शब्द "रंजीत" अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। मर्म एवं अनुभव की समष्टि इस रचना को सही मानने में कोई गुरेज़ पैदा नहीं होने देता। रितेश मिश्रा की कविता प्रस्तुत है।
" रंजीत " शब्द का अर्थ यहाँ यथास्थिति में ग्रसित समाज से है, जो यथास्थिति में शामिल होने का दुःख नहीं करता साथ ही "स्वीकार" शब्द से जुड़कर लंबे दिलासे का सहयोगी बन जाता है, आजादी की घोषणा कर देता है। मूलतः यह रचना एक मूल्यांकन है, समाज के प्रति क्या है ?, क्या नहीं ? और क्या होना चाहिए ? के प्रति. रितेश मिश्रा की अधिकतम कविताओं को यदि समग्र रूप से समझा और पढ़ा जाए तो ये बात ज़ल्द समझ में आ सकती है।
हमारा अतीत तथा हर दौर आलोचना और गुणगान के साहित्य एवं अनुभवों में प्रचुरता से रमा हुआ है, और यदि पुनः आलोचना मात्र करने का दायित्व हम में से किसी को मिल जाए तो यह वही बात होगी कि " सत्तू उड़ा, पितरों को। " मार्क्स ने कहा था " दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या मात्र की है, असल सवाल यह है, कि इसे बदला कैसे जाए " मैं मार्क्स के कथन से पूरी तरह सहमत हूँ, क्यूंकि " रंजीत के साथ मत खेला करो " कविता भी वैयक्तिक अनुभवों की फहरिस्त में बोध हस्ताक्षर करती है, इससे और कुछ नहीं समझ एवं समझदारी के मध्य दो राय बनते हैं, पहला पलायन तथा दूसरा बदलाव, और मानने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि बदलाव सिर्फ़ विचारों एवं साहित्य में आया है, अगर यही प्रगतिशीलता है,तो माना जाए कि हम बहसों में अव्वल हैं, मगर बदलाव की कल्पना सिर्फ़ भगत सिंह की जीवनी पढ़कर कुछ समय का देशभक्ति उत्तेजन मात्र है।
अगर यह बोध पेशेवर बुद्धि से गुज़र जाए तो शायद तिरस्कार और ना जाने ऐसे ही कितने शाब्दिक आक्षेप द्वारा बाँध लिया जाएगा। केन्द्रीय बिम्ब यही है, कि अतीत के साथ समर्थता को बिना जोड़े स्वीकार कर लिया जाए तो " मेरी गलती कहाँ है " जैसे वाक्यों का आना सुलभ एवं वाजिब हो जाता है, यह भी कि " दिन भर जैसे किसी नशेड़ी ने नशा न किया हो " जैसी दैनिक बेचैनी, जो तोड़ तो रही है, मगर बेचैनी अपने आप को सही साबित करती है कि मुझे स्वीकार नहीं, प्रश्न यह कि क्या पलायन और बहस के मध्य कोई आन्दोलन फंसा हुआ है, जिसे न देख पाना मेरी अब तक की असमर्थता थी। घटाटोप वर्णन, तथा कविता के बाहर लांघकर बिना किसी दृष्टिकोण के समझा जाए तो बोधगम्यता के सामने शब्दों का बौना होना क्या होता है, समझ आ जाएगा। कविता के अन्तिम छोर में एक शब्द बहुत गहरे तथा प्रश्नवाचक रूप में सामने आ खड़ा हुआ है, " वही आवाज़"। यह आवाज़ दरअसल कविता लिखे जाने के पहले की स्थिति एवं प्रतिद्वंद्वियों से साम्य रखती हुई, प्रतिद्वंद्वियों द्बारा ही पलायन के लिए वातावरण निर्मित करने का माध्यम मात्र है। सांकेतिक रूप में शब्द "रंजीत" अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। मर्म एवं अनुभव की समष्टि इस रचना को सही मानने में कोई गुरेज़ पैदा नहीं होने देता। रितेश मिश्रा की कविता प्रस्तुत है।
रंजीत के साथ मत खेला करो
बहुत कुछ टूट गया
खून मेरे प्रश्नों की तरह
कहीं कहीं बह रहा है
और कहीं थक्का बांध गया है
आँखें,
मानो, किसी नशेड़ी ने दिन भर कोई नशा न किया हो
पंजे दोनों तने हुए
जैसे क्रोध उतारने की कोई कला हो
होंठ बुदबुदा रहे हों जैसे
" मैं ने तो कुछ नहीं किया, आख़िर मेरी गलती कहाँ है ? "
आवाज़ आई
नेपथ्य से, वही आवाज़
कितनी बार कहा है
" रंजीत के साथ मत खेला करो "
खून मेरे प्रश्नों की तरह
कहीं कहीं बह रहा है
और कहीं थक्का बांध गया है
आँखें,
मानो, किसी नशेड़ी ने दिन भर कोई नशा न किया हो
पंजे दोनों तने हुए
जैसे क्रोध उतारने की कोई कला हो
होंठ बुदबुदा रहे हों जैसे
" मैं ने तो कुछ नहीं किया, आख़िर मेरी गलती कहाँ है ? "
आवाज़ आई
नेपथ्य से, वही आवाज़
कितनी बार कहा है
" रंजीत के साथ मत खेला करो "
_ निशांत कौशिक
6 comments:
आँखें,
मानो, किसी नशेड़ी ने दिन भर कोई नशा न किया हो
... कृपया रेगुलर रहा करें... आपके पोस्ट का इंतज़ार रहता है...
बेहद व्यंजना पूर्ण रचना है ..........बहुत सारे सवालों को समेटे .
शायद आज की ....अभी तक की... सबसे बेहतरीन पोस्ट पढ़ी ....शुक्रिया इस अद्भुत... कविता को देने के लिए
Ritesh ji ki kavita to hamesha hi behtreen hoti hai.ve ek yuva kavi hone ke sath kranti ka mahatv bahut gahrai se samjhte hai,, aur ekdam juda lekhak hai....dusri bat ki men aapki har alochna se prabhavit hun, apke shabd men nishant ji adbhut jadu hai, ap ne kahi likha ki aap 18 years ke hai.aur itni umr men.....itni pakad......men hairan hun......kuch bhi kahna mushkil.ritesh bhai ko prnam...aur aapki bhasha ko ek salaam......
avinash.
बेहद गहरी और बेहतरीन कविता...
इसका अंदाज़ अलग है...और सीधी बात करता है...
अमूर्त चिंतन की संभावनाएं बरकरार रखते हुए...
hh
एक टिप्पणी भेजें
किसी भी विचार की प्रतिक्रिया का महत्व तब ही साकार होता है, जब वह प्रतिक्रिया लेख अथवा किसी भी रचना की सम्पूर्ण मीमांसा के बाद दी गयी हो, कविता को देखकर साधुवाद, बधाई आदि शब्दों से औपचारिकता की संख्या बढ़ा देना मात्र टिप्पणी की संख्या बढ़ा देना है. ताहम के प्रत्येक लेख/रचना जिसमें समझ/असमझ/उलझन के मुताल्लिक़ टिप्पणी को भले ही कम शब्दों में रखा जाए, मगर ये टिप्पणी अपने होने का अर्थ पा सकती है.रचना के प्रति आपके टिप्पणी का मीमांसात्मक/आलोचनात्मक वैचारिक प्रस्फुटन इसके अर्थ को नए तरीके से सामने ला सकता है
ताहम........