भावनाएं भविष्य के खतरे की बू तो पहले से ही देने लगती है, मगर इस आनंद और संवेदना को हम एक ही दायरे में देखने लग जाते हैं, चाहे वह धर्म हो या भारत "माता"। भारत को माँ मानकर सज़दा करने में लोगों को एतराज़ अक्सर रहा ही है, और यह परिस्थिति उन्हें उनके धर्म के बायें ओर खड़े होने का फरमान ज़ारी करती है। बंकिम बाबू के आनंदमठ में विधर्मियों से जब विद्रोह होता है, तो सम्प्रदाय द्वारा वंदना में माँ " दुर्गा" की प्रार्थना रूप में "वंदे मातरम्" गाया जाता है, सिर्फ़ नबीमूलक धर्मों की बात करें तो एकेश्वरवाद या तौहीद की शर्तों के अनुयायी होने के कारण अन्य किसी के आगे सज़दा करना शिर्क है, गुनाह है, कुफ्र है, और वह काफिर है [यह कितनी सत्य बात है, मैं निश्चित नही हूँ ? ]।
और दूसरी बात यह की आधुनिक थोथे धार्मिक कर्मकांडों खासकर हिंदू धर्म में जो प्रचलित है, यह भी भविष्य के लिए, खतरे की बू ही है। गणेश चौथ से अनंत चौदस तक रखी जाने वाली प्रतिमाएं, या प्रथम से लेकर नवमीं तक रखी जाने वाली दुर्गा प्रतिमाएं, [ इसमें विश्वकर्मा मूर्ति आदि भी जिस तरह शामिल है ] , अन्तिम दिन जिस तरह नदियों में बहाई जाती है, इसका सवाब क्या है ? मुझे नहीं पता, मगर भारी मात्रा की मिट्टी और मूर्तियों में प्रयुक्त रंगीन तत्व नदियों को दोज़ख तक ज़रूर ले जा रहे हैं, यह दूसरा मसला है, कि दुर्गा पूजन करने वाले ठेकेदार महिला नाम के तत्व को समझते हैं कि नहीं। बहुत बड़ा बुद्धि के जीवियों का वर्ग इस प्रथा को सहयोग देता आ रहा है कि यह पुरानी प्रथा एवं आस्था है, जिसे बदलना मुमकिन नहीं। और उस सत्य का क्या जो कुछ सालों में पानी कि गंदगी और उसके अभाव के रूप में हमारे सामने आ रहा है ? या उन्हें अन्य देशों में बहने वाली नदियाँ दिखाने चाहिए जहाँ झांके जाने पर पानी ही नज़र आता है, और गंगा में झाँकने पर पानी छोड़ कर सब कुछ नज़र आजाता है।
भारत में पली और मेहमान हुई कई विचारधाराओं के साथ यह घोर समस्या रही है कि वे भारत को परिवर्तित कितना कर सकीं ये नहीं पता हाँ भारत ने अपने हित में मोड़ने के कारण उनका सत्यानाश ज़रूर कर डाला।
" तुझ को ख़ुदा कहूँ, या ख़ुदा को ख़ुदा कहूँ ।
दोनों की शक्ल एक है किसको ख़ुदा कहूँ ॥ "
भारत में समाजवाद, और प्रगतिशीलता के भी दो-दो चेहरे हैं, जिनके सामने "किसको ख़ुदा कहूँ" जैसे प्रश्न खड़े हैं। साथ ही ये भी कहा जाए कि धर्म समाज में "अधिकतम" का आर्थिक सहयोगी बन गया है, और विद्रोही उनके लिए वर्जित बाग़ की इजाज़त देने वाला शैतान है। अनुयायी ही विचारधारा का शोषण करके उसे अपने हित में किस तरह मोड़ता है, प्रकृति इसका बहुत बड़ा उदाहरण है।
" जा इलाही तुझे माफ़ किया
कि
आदम तेरा पहला गुनाह था "
मार्क्स का एक कथन है :-
" धर्म एक ज़ंजीर की तरह है, जिसके ऊपर खुशबूदार फूल बिछे हुए हैं। "
वाकई धर्म अपने अंतर्विरोधों से अधिक नहीं लड़ पाता, और उसके सर्वनाश का कारण भी वही अंतर्विरोध बनता है। और वैचारिक धाराओं में ग़लती होना स्वाभाविक है, क्यूंकि चिंतन सिर्फ़ चेतना शून्यता नही लाता, वरन स्वयं को स्थापित करने का आधार भी प्रस्तुत करता है।
गीता कभी आत्मा को स्थिर एवं अचल बताती है, कभी एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करने वाली। कृष्ण कभी कहते हैं कि दुनिया समय चलाता है और व्यक्ति का कर्म, कर्म का कारण मैं नहीं हूँ, उसकी अपनी बुद्धि है, न मैं कर्म हूँ न कर्ता, न कर्ता में विद्यवान। और कभी कहते हैं कि पेड़ का पत्ता भी मेरे बगैर नही हिल सकता, मानव के सारे कर्मों का लेखा जोखा निर्णय का मैं ही कर्ता हूँ, मैं ही वक्त को अपने अनुसार ढालता हूँ [यह भी सनद रहे कि समय को रोककर कृष्ण ने गीता अर्जुन को सुनाई थी, और संजय उसके गुप्त दृष्टा थे]।
मुझे संदेह है कि वेद व्यास ने अपने मत को महाभारत में २३ से लेकर ४०वें अध्याय तक अपने इष्ट के श्री मुख से कहलवाया है, और गीता का दृष्टिकोण तमाम महाभारत से सर्वथा इसीलिए भिन्न है क्यूंकि उसमें अद्वैतवादी उपनिषदों का निचोड़ है, और ऐसी ही एक और दार्शनिक रचना वेदांत दर्शन के रचयिता भी व्यास हैं।
किसी कि प्रसिद्ध उक्ति थी, कि :-
"अपने मत को सर्वमान्य बनने के लिए उसे अपने रहस्यवादी आदर्श का वक्तव्य बनाओ, लोग उसे आसानी से स्वीकार करेंगे। "
यह समस्या सिर्फ़ हिन्दुओं के साथ ही नहीं वरन अधिकतम नबीमूलक धर्मों के साथ भी है
" ख़ुदा के वास्ते काबे से परदा न उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो यहाँ भी कोई काफिर सनम निकले "
मुहर्रम में आनंद का आगमन अहादीस और क़ुरान दोनों में हराम है, जिसे शिर्क कहा जाता है। ख्रीष्ट में शैतान और ईश्वर दो अस्तित्व की तरह उभरते हैं।
"धर्म विरोधी" कबीरदास ख़ुद एक "धर्म" हो गए , लोग कबीरपंथी बन गए, मूर्ति विरोधी, बुद्ध की सबसे अधिक मूर्तियाँ है, कार्ल मार्क्स को समाजवाद का " मसीहा" बना दिया गया, आचार्य रजनीश को " भगवान् "संबोधन मिल गया, जे कृष्णमूर्ति को " आजादी का देवता" कहा गया , अल्बेयर कामू को " स्वतंत्रता का पुजारी ", सार्त्र को "अस्तित्व का अवतार" कह दिया गया, ताओ लाओत्से को " चेतना का पंथ"। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं।
रजनीश का ही एक कथन है कि :-
"ईश्वर विद्वानों के साथ ही आता है, और उसी के साथ चला जाता है, बाकी अनुयायी बस दुग्दुगी बजाते रहते हैं "। दुर्गा सप्तशती के लगभग ७ अध्यायों में युद्ध ही युद्ध है, महाभारत युद्ध से अटा पड़ा है, रामायण में भार्या हेतु युद्ध किया गया है, कृष्ण भी स्वयं युद्ध का ही संदेश देते नज़र आते हैं।
फ़िर भी आजके द्वन्द्वादि वातावरण में इन पुरानी रणनीतियों से कैसे शान्ति स्थापित की जाए, ये जो कि किसी निश्चित परिस्तिथि को ही अन्तिम निर्णय मानते हैं, ये जो कि अपने मत से हजारों सालों का नेतृत्त्व करने का वचन देते हैं। इनका विश्वास किस हद तक किया जाए, ये सामने हैं, या फ़िर सहमत हुआ जाए कि
" कोई होई नृप हमें का हानि"... [ तुलसीदास]
लेख समाप्त करता हूँ अष्टभुजा शुक्ल जी की कविता " गणित के कुछ प्रश्न " के साथ जो कि मेरी पसंदीदा कविता है।
" गणित के कुछ प्रश्न "
(१)
" किसी धर्मस्थल के विवाद में
पांच हज़ार गोली से
तीन हज़ार गोले से
एक हज़ार चाकू से
और पांच सौ जलाकर मार दिए जाते हैं
तीन सौ महिलाओं को नाली
और दो सौ बच्चों को बकरा समझा जाता है
धर्म में सहिष्णुता का प्रतिशत ज्ञात कीजिये। "
(२)
" कोई दूकानदार
एक बोरी यूरिया में
एक बोरी पिसा नमक मिलाता है
तो उसकी आय
उसकी लागत की तिगुनी हो जाती है
वही खाद
एक लघु सीमांत किसान
जब अपने खेत में डालता है
तो उसकी आय
उसकी लागत की
आधी आती है
किसान की
किस पीढी़ का बच्चा
दूध भात खायेगा
एवं किस युग के किस चरण में
रामराज्य अथवा समाजवाद आयेगा? "
निशांत कौशिक
और दूसरी बात यह की आधुनिक थोथे धार्मिक कर्मकांडों खासकर हिंदू धर्म में जो प्रचलित है, यह भी भविष्य के लिए, खतरे की बू ही है। गणेश चौथ से अनंत चौदस तक रखी जाने वाली प्रतिमाएं, या प्रथम से लेकर नवमीं तक रखी जाने वाली दुर्गा प्रतिमाएं, [ इसमें विश्वकर्मा मूर्ति आदि भी जिस तरह शामिल है ] , अन्तिम दिन जिस तरह नदियों में बहाई जाती है, इसका सवाब क्या है ? मुझे नहीं पता, मगर भारी मात्रा की मिट्टी और मूर्तियों में प्रयुक्त रंगीन तत्व नदियों को दोज़ख तक ज़रूर ले जा रहे हैं, यह दूसरा मसला है, कि दुर्गा पूजन करने वाले ठेकेदार महिला नाम के तत्व को समझते हैं कि नहीं। बहुत बड़ा बुद्धि के जीवियों का वर्ग इस प्रथा को सहयोग देता आ रहा है कि यह पुरानी प्रथा एवं आस्था है, जिसे बदलना मुमकिन नहीं। और उस सत्य का क्या जो कुछ सालों में पानी कि गंदगी और उसके अभाव के रूप में हमारे सामने आ रहा है ? या उन्हें अन्य देशों में बहने वाली नदियाँ दिखाने चाहिए जहाँ झांके जाने पर पानी ही नज़र आता है, और गंगा में झाँकने पर पानी छोड़ कर सब कुछ नज़र आजाता है।
भारत में पली और मेहमान हुई कई विचारधाराओं के साथ यह घोर समस्या रही है कि वे भारत को परिवर्तित कितना कर सकीं ये नहीं पता हाँ भारत ने अपने हित में मोड़ने के कारण उनका सत्यानाश ज़रूर कर डाला।
" तुझ को ख़ुदा कहूँ, या ख़ुदा को ख़ुदा कहूँ ।
दोनों की शक्ल एक है किसको ख़ुदा कहूँ ॥ "
भारत में समाजवाद, और प्रगतिशीलता के भी दो-दो चेहरे हैं, जिनके सामने "किसको ख़ुदा कहूँ" जैसे प्रश्न खड़े हैं। साथ ही ये भी कहा जाए कि धर्म समाज में "अधिकतम" का आर्थिक सहयोगी बन गया है, और विद्रोही उनके लिए वर्जित बाग़ की इजाज़त देने वाला शैतान है। अनुयायी ही विचारधारा का शोषण करके उसे अपने हित में किस तरह मोड़ता है, प्रकृति इसका बहुत बड़ा उदाहरण है।
" जा इलाही तुझे माफ़ किया
कि
आदम तेरा पहला गुनाह था "
मार्क्स का एक कथन है :-
" धर्म एक ज़ंजीर की तरह है, जिसके ऊपर खुशबूदार फूल बिछे हुए हैं। "
वाकई धर्म अपने अंतर्विरोधों से अधिक नहीं लड़ पाता, और उसके सर्वनाश का कारण भी वही अंतर्विरोध बनता है। और वैचारिक धाराओं में ग़लती होना स्वाभाविक है, क्यूंकि चिंतन सिर्फ़ चेतना शून्यता नही लाता, वरन स्वयं को स्थापित करने का आधार भी प्रस्तुत करता है।
गीता कभी आत्मा को स्थिर एवं अचल बताती है, कभी एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करने वाली। कृष्ण कभी कहते हैं कि दुनिया समय चलाता है और व्यक्ति का कर्म, कर्म का कारण मैं नहीं हूँ, उसकी अपनी बुद्धि है, न मैं कर्म हूँ न कर्ता, न कर्ता में विद्यवान। और कभी कहते हैं कि पेड़ का पत्ता भी मेरे बगैर नही हिल सकता, मानव के सारे कर्मों का लेखा जोखा निर्णय का मैं ही कर्ता हूँ, मैं ही वक्त को अपने अनुसार ढालता हूँ [यह भी सनद रहे कि समय को रोककर कृष्ण ने गीता अर्जुन को सुनाई थी, और संजय उसके गुप्त दृष्टा थे]।
मुझे संदेह है कि वेद व्यास ने अपने मत को महाभारत में २३ से लेकर ४०वें अध्याय तक अपने इष्ट के श्री मुख से कहलवाया है, और गीता का दृष्टिकोण तमाम महाभारत से सर्वथा इसीलिए भिन्न है क्यूंकि उसमें अद्वैतवादी उपनिषदों का निचोड़ है, और ऐसी ही एक और दार्शनिक रचना वेदांत दर्शन के रचयिता भी व्यास हैं।
किसी कि प्रसिद्ध उक्ति थी, कि :-
"अपने मत को सर्वमान्य बनने के लिए उसे अपने रहस्यवादी आदर्श का वक्तव्य बनाओ, लोग उसे आसानी से स्वीकार करेंगे। "
यह समस्या सिर्फ़ हिन्दुओं के साथ ही नहीं वरन अधिकतम नबीमूलक धर्मों के साथ भी है
" ख़ुदा के वास्ते काबे से परदा न उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो यहाँ भी कोई काफिर सनम निकले "
मुहर्रम में आनंद का आगमन अहादीस और क़ुरान दोनों में हराम है, जिसे शिर्क कहा जाता है। ख्रीष्ट में शैतान और ईश्वर दो अस्तित्व की तरह उभरते हैं।
"धर्म विरोधी" कबीरदास ख़ुद एक "धर्म" हो गए , लोग कबीरपंथी बन गए, मूर्ति विरोधी, बुद्ध की सबसे अधिक मूर्तियाँ है, कार्ल मार्क्स को समाजवाद का " मसीहा" बना दिया गया, आचार्य रजनीश को " भगवान् "संबोधन मिल गया, जे कृष्णमूर्ति को " आजादी का देवता" कहा गया , अल्बेयर कामू को " स्वतंत्रता का पुजारी ", सार्त्र को "अस्तित्व का अवतार" कह दिया गया, ताओ लाओत्से को " चेतना का पंथ"। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं।
रजनीश का ही एक कथन है कि :-
"ईश्वर विद्वानों के साथ ही आता है, और उसी के साथ चला जाता है, बाकी अनुयायी बस दुग्दुगी बजाते रहते हैं "। दुर्गा सप्तशती के लगभग ७ अध्यायों में युद्ध ही युद्ध है, महाभारत युद्ध से अटा पड़ा है, रामायण में भार्या हेतु युद्ध किया गया है, कृष्ण भी स्वयं युद्ध का ही संदेश देते नज़र आते हैं।
फ़िर भी आजके द्वन्द्वादि वातावरण में इन पुरानी रणनीतियों से कैसे शान्ति स्थापित की जाए, ये जो कि किसी निश्चित परिस्तिथि को ही अन्तिम निर्णय मानते हैं, ये जो कि अपने मत से हजारों सालों का नेतृत्त्व करने का वचन देते हैं। इनका विश्वास किस हद तक किया जाए, ये सामने हैं, या फ़िर सहमत हुआ जाए कि
" कोई होई नृप हमें का हानि"... [ तुलसीदास]
लेख समाप्त करता हूँ अष्टभुजा शुक्ल जी की कविता " गणित के कुछ प्रश्न " के साथ जो कि मेरी पसंदीदा कविता है।
" गणित के कुछ प्रश्न "
(१)
" किसी धर्मस्थल के विवाद में
पांच हज़ार गोली से
तीन हज़ार गोले से
एक हज़ार चाकू से
और पांच सौ जलाकर मार दिए जाते हैं
तीन सौ महिलाओं को नाली
और दो सौ बच्चों को बकरा समझा जाता है
धर्म में सहिष्णुता का प्रतिशत ज्ञात कीजिये। "
(२)
" कोई दूकानदार
एक बोरी यूरिया में
एक बोरी पिसा नमक मिलाता है
तो उसकी आय
उसकी लागत की तिगुनी हो जाती है
वही खाद
एक लघु सीमांत किसान
जब अपने खेत में डालता है
तो उसकी आय
उसकी लागत की
आधी आती है
किसान की
किस पीढी़ का बच्चा
दूध भात खायेगा
एवं किस युग के किस चरण में
रामराज्य अथवा समाजवाद आयेगा? "
निशांत कौशिक
7 comments:
चिंतनीय विषय फिलहाल इतना ही कह सकता हूँ... एक बार सोच कर फिर से आऊंगा यहाँ... शायद तब कहने के लिए भी कुछ हो...
मेरा यूँ मानना है की जिस तरह अल्कोहल का एब यूज़ होता है .उसी तरह से धर्म का भी दुरूपयोग हुआ है ..आदमी ने अपनी सहूलियतों के वास्ते उसे अपने मुताबिक बदला है .धर्म बुरा नहीं है .व्यक्ति बुरा है...
Nishant ji,, bahut unche aur chintansheel vichaar hain, jo bhaavi samasyayon ko aank rahe hain. badhiya lekh....nai samasyayein uthai gayi hain....
dr anurag sahab, dharm aadmi ka aur aadmi dharm ka nirmata hai.aap kah rahe hain dharm bura hai, dharm ne hi striyon aur anand ka sabse adhik virodh kiya hai, ham kaise ye pata karein ki kya accha hai aur kya bura..? dharm yadi bura hai, to vah bhi aadmi ka banaya hua hai, aur yadi aadmi ne dharm banaya hai to dharm aur aadmi dono bure hain.
धर्म ने सभी को अधर्मी बना दिया है ...........
हम्म.... धर्म विचार की जड़ है, धर्म वर्तमान भी है भविष्य भी, कुछ साल पहले की बात है जब विचारधारा में उलझा था और धर्मसुधार आन्दोलन और फ्रांस, इटली और बांकी देशों की क्रांति पढ़ रहा था तब लगा धर्म एक जबरदस्त चीज़ है... परिपेक्ष्य क्या है यह जरूरी है... साथी लेवल पर तो यही है जो आज हो रहा है, जैसा की चित्र में आपने दर्शया है ...
सवालों से सही तरह से जूझता और एक दिशा दिखाता आलेख।
सागर जी से निवेदन है कि विचारधाराओं से उलझना जारी रखें, और विश्व इतिहास में उल्लिखित परिघटनाओं के आगे के इतिहास और दर्शन की विचारधाराओं के विकास पर भी दृष्टि दौड़ाते रहें।
परिप्रेक्ष्यों के बारे में भी कई दृष्टियां मिलेंगी।
Nishant ji thanks for sharing. The poem, i hope turns eye-opener for all those blind followers of religion, here i am particularly reffering to the first stanza.
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ताहम........