बुधवार, 19 अगस्त 2009

परिवर्तन की परिभाषाएं


धूमिल की एक कविता का छोटा सा अंश है : -

" क्या आजादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई ख़ास मतलब होता है। "


बचपन छूटे समय हुआ। स्कूल में आज़ादी का अर्थ मेरे लिए नाश्ता वितरण में सम्मिलित होने का मुन्तजिर बनना बस था। उस वक़्त बनिए से भारत की शान "एक रुपये" में खरीदा करते थे, आज शायद तिरंगे की कीमत २ रुपये होगी। ज़्यादा अन्तराल नहीं आज अठारह वर्ष का हूँ, लेकिन आज़ादी सिर्फ़ १५ अगस्त में रोके रखना रास नहीं आता। इस लेख में भगत सिंह की विचारधारा कुछ स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।

विद्रोह यदि सफल हो जाए तो क्रांति है, यदि सफल नहीं है, तो उसे लोग अपनी शब्दावली से संज्ञा दे दिया करते हैं। भगत सिंह का विचार भारत के तिरंगे की अपेक्षा भारत के प्रति अधिक था। यह सही बात है, कि जिस तरह की आज़ादी हमें प्राप्त हुई, उसे वर्ग विशेष आज़ादी कहा जा सकता है, और व्यवस्था को वर्ग शासन कहना अतिरंजना नहीं होगा, अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारत में भगत सिंह का संगठन इस बात से पूरी तरह से अवगत था, कि चंद बाशिंदों और सह्मत्कारों के हाथ में हाथ लेकर आज़ादी के स्तर पर पहुंचने का एक लंबा रास्ता था, एक लंबा सपना था, और इसका फलक कितना बड़ा होगा ये भी सोचना दुष्कर चिंतन था । भगत सिंह के सम्पूर्ण चिंतन और कार्य पद्धति को देखा जाए, तो एक बात स्पष्ट ज़रूर होती है, कि उनका समस्त ज़ोर आज़ादी हेतू नहीं था। वरन इस बात पर कि आज़ादी प्राप्त होने के बाद जो नई शक्तियां और समस्याएं उग्र होनी है, उनके लिए बेहतर निदान क्या हो सकता था ? अतः गांधीवादी चिन्तक एवं अनुयायी, भगत सिंह से सदैव इस बात पर विरोध में रहे, कि युवाओं के इस संगठन से आज़ादी के प्रति लोगों की सजगता जाग तो सकती है, मगर भारत की चली आ रही पूर्व संस्कृति को सम्पूर्ण तरह से नष्ट कर ही दिया जाएगा। और ये चिंतन यदि व्यापक हुआ तो इसकी विफलता १८५७ की तरह सोचना बिल्कुल ही विफल है। क्यूंकि भगत के उस समाजवादी विचारों का प्रभाव युवाओं में तेज़ी से पड़ता था, और हुकूमत से खिन्न, मौटे तौर पर भारतीय युवक, पहले से चली आ रही, सात्विक विचारधारा और कोरे हुल्लड़ से वाकिफ हो चुके थे।

भगत के स्पष्ट मायने यही थे, कि आज़ादी के बाद यदि भारत अंग्रेजों जैसे ही किसी शासक की तरह वर्ग विशेषता पर ध्यान देते हुए शासन करने लगे तो आज़ादी सिर्फ़ अंग्रेजों की अनुपस्थिति ही कहलाएगी। भगत सिंह को पहले भान हो चुका था, कि आज़ादी तो प्राप्त होगी ही, लेकिन मात्र अंग्रेजों से। यही भावी दृष्टिकोण भगत सिंह के चिंतन को खुले रूप से सामने रखता है, जो इस चिंतन से पिछड़ा उसने भगत सिंह को एक मात्र विद्रोही क्रांतिकारी माना जो, माओत्से तुंग की तरह आज़ादी हमारे हाथों में सोंपना चाहता है { हालांकि माओत्से के प्रति सभी के अपने विचार हैं } । समाजवादी चिंतकों ने यह स्पष्ट कर दिया था, कि भारत में समाजवाद को संस्कृति,सामंतवाद,पूंजीवाद और बहुत हद तक फासीवादियों से भी लड़ना है। भारत में आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा की देन " कंप्यूटर" आज भी जब घरों में आता है, तो नारियल फोड़ा जाता है। यह एक ऐसी संस्कृति है जिसने समाजवाद और प्रगतिशीलता दोनों के रोंगटे खड़े कर दिए हैं, कि समाजवाद,साम्यवाद,माओवाद के बाद यदि भारत में समाजवादी क्रांति होती है तो उसका नाम क्या होगा ? क्यूंकि भारत की विशाल संस्कृति को परिवर्तन से जोड़ना दुष्कर कार्य है। भगत सिंह सदैव आज़ादी से अधिक आज़ादी की बाद की अवस्था पर चिंतित थे। भले ही आज़ादी प्राप्त करने के लिए भगत सिंह का वह संगठन छोटा हो, मगर आज़ादी की बाद की अवस्था जिसमें हम जी रहे हैं, इसके लिए उस वक़्त उतना संगठन जोड़ने का श्रेय केवल भगत सिंह को जाता है। रघुवीर सहाय की एक कविता प्रस्तुत है : -


राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत
भाग्य विधाता है
फटा
सुथन्ना पहने जिसका
गुन
हरचरना गाता है

मखमल
टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी
छत्र चंवर के साथ
तोप
छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय
जय कौन कराता है

पूरब पश्चिम से आते हैं
नंगे बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,उनके
तमगे
कौन लगाता है

कौन
कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा
हुआ मन बेमन जिसका
बाजा
रोज़ बजाता है



निशांत कौशिक

8 comments:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अच्छा लगा पढ़कर.

नियमित लिखें..

सादर शुभकामनाऐं.

सुशीला पुरी ने कहा…

bahut sundar aur vaicharik lekh v kaitayn........

डॉ .अनुराग ने कहा…

किसी ने कहा था जब तक प्रत्येक व्यक्ति को खाना ओर सोने को जगह नहीं मिल पायेगी...तब तक इस धरती पार सभ्यता को पूर्ण नहीं माना जाएगा ...भगत सिंह ने जेल जाने का विचार सिर्फ यूँ ही नौजवानी के जोश में नहीं किया था ..अपने सामय के क्रांतिकारियों में वे खूब पढने वाले ओर सोच वाले युवा थे ..तभी जेल में आमरण अनशन के दौरान उन्होंने जेल के भारतीय अफसरों तक की सहानुभूति प्राप्त कर ली थी...
जिस सपने ओर सोच को लेकर देश आजाद हुआ था ...वक़्त ओर गुजरते सालो के साथ वे भी दफ़न हो गए ओर हमने एक ऐसी पीढी को जन्म दिया जो निज के दायरे से ही पूरी उम्र बाहर नहीं निकल पाती है .वो समाज या देश के लिए क्या सोचेगी...यदि हर इन्सान अपने सीमित दायरे में रहकर भी अपना काम इमानदारी से करे .तो वे देश ओर समाज के लिए बेहतरी कर पायेगा....उसे कही से झंडे उठाने की जरुरत नहीं...सवाल मानसिक सोच को बदलने का है

सागर ने कहा…

आज से कुछ बरस पहले उनके दस्तावेज (शायद) 'मैं इश्वर में क्यों विश्वास नहीं करता' पढ़ा था... बहुत सोचने वाले क्रन्तिकारी लगे वोह.... साधारणतया ज्यादा सोचने से निर्णय कमजोर पड़ जाते हैं... खास कर उस कलेजे को तो ज्यादा सोचना नहीं चाहिए... क्यों की वो दाव पर लगी थी... उनके साथी के साथ यही हुआ... भगत सिंह अपवाद थे... वो किताब पढ़ कर लगता है कि क्रांति के मायने क्या हैं... और क्या हैं जश्न-ए- आज़ादी....

बहुत बेहतर लेख लिखा है आपने... ब्लॉग में एक नयी उम्मीद कह सकता हूँ... आप ऑरकुट पर भी मेरे साथ बने रहें... वक़्त मिलते है कभी बात करेंगे....

avinash ने कहा…

Badhiya vimarsh hai...bhagat kee is vichardhara ke baare mein kabhi soch hi nahin paaya..mere hisaab se aapne bahut gahri baat ko uthaya hai..aap behter soch rahe hain..ye blog bahut unche falak par hai..dheere dheere hamari aadat hogi isko padhne kee..bahut badhiya nishant ji..

Avinash sharma

ताहम... ने कहा…

Dear avinash ji..accha laga ki aapne badhai di..parantu mein is baat par zor dena chahunga..kee meri apeksha aap lekh ko padhein,,,aur bilkul nishpaksh hokar tippni karein...jisse ham purzor bahas kar sakein...mere khyaal se aap mere baare mein zyaada na likhkar lekh par bindu gahrai se uthate to mein zyaada khush hota..dhanywaad avinash ji...

Nishant kaushik

gunjesh ने कहा…

bhai Bhagat singh par sundar lekh. likin unke braks kuch baten, jo aaj ke sandarv men aur bhi mahtwapurn hai wo ye ki Bhagat singh kabhi bhi stta ke liye nahi lade(ye tumne likha hai,aur sath hi yeh bhi ki wo hamesha chintti the ki aazadi ke bad ka bhart kaisa hoga.)mujhe lagta hai ki wo apne samy men chizon ko gazab ki unchai se dekh rahe the, wo dekh rahe the ki jo aazadi "hind swaraj" se hame milne wali hai usmen sirf "jhanda" badle ga, "goron" ki jagah "kale gore" shahsan karenge, wo dekh rahe the ki "aashaeam bapu" jaise log puje jayenge isliye we nastik ho gaye, wo samy se ek nitant "aarthik" prashan puchte hue bhawishiya (hmare wartman" ke bhagwan kko nakar rhe the, we ghee ke laddu khane wale bhagwan ko bhukhe sone wale bhikhari ke karn nakar rahe the ....
Bhagat singh sirf ek kranti kari nahi the we darshnik the jo durdarshaniya swalon par soch rahe the unhen yakin ki aazadi to hamen milni hi hai....lekin wo aazadi shoshan ki nai kahani nahi likhe, ya yun kahen ki wo jante trhe ki jo aazadi hamen milegi wo shoshan ki nai kahani hi likhegi, aur wo usi vyawstha ke wirodhi the ...

Unknown ने कहा…

भगतसिंह की चेतना में जिस दृष्टिकोण ने पैर जमा कर उन्हें दूरदृष्टा बनाया उसे आम करने की बेहद जरूरत है।

एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही नई राह खोजने और परिवर्तन की नई परिभाषाएं गढ़ने में समर्थ हो सकता है।

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