शनिवार, 25 जुलाई 2009

"स्त्री"


सिमोन बोउवार ने कहा था :-

" स्त्री पैदा नहीं होती, वह स्त्री हो जाती है "

नारी विमर्श को चाहे कहीं से भी आरम्भ किया जाए, उसका आधार नारी ही होगी। नारी के साथ विमर्श शब्द का प्रयोग मुझे अनुचित लगता है, क्यूंकि ये स्त्री पर किसी अतिक्रमण की तरह व्यवहार करता है, और स्त्री, स्त्री नहीं रहस्यमय बिन्दु लगने लगती है। प्रभा खेतान,महाश्वेता देवी,सिमोन स्त्री को स्वतंत्रता से जीने के सूत्र तो समझाती हैं, परन्तु दूसरे ही पल में सारी स्त्रियाँ एक विचारधारा में बंधी मालूम होती है, और स्वतंत्रता की घोषणा करना बेमानी हो जाता है, अस्तित्व के सारे गुमान टूट जाते हैं।

अनामिका की एक कविता है :-

ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह वर्ष की उम्र से
उन्हें ठिठकाये ही रखता
देवालय के बाहर
बेथलहम और येरुशलम के बीच
कठिन सफर में उनके
हो जाते कई बलात्कार
और उनके दुधमुंहे बच्चे
भूख से बिलबिलाकर मरते
एक एक कर
ईसा को फुर्सत ही मिलती
सूली पर भी चढ़ जाने की

तसलीमा नसरीन ने एक बहुत ही उम्दा बात को सामने रखा था, कि " धर्म स्त्रियों की सदैव से उपेक्षा करता रहा है " और इस बात को यहाँ लिखने के लिए मुझे कोई उद्धरण दिलासे के तौर पर सनद नहीं है। प्रभा खेतान जी के अनुसार पाश्चात्य "शरीरवादी" हैं, तथा ऐसे देशों में 'Gentleman, Ladies' ही उनके संबोधन होते हैं, जहाँ सुरक्षा तथा किसी प्रकार के रिश्ते के स्थापना मानस पटल पर फ़ौरन समाप्त कर दी जाती है। परन्तु भारत में अपरिचित स्त्री, पुरुषों के बीच, "भाई" , "बहन" आदि संबोधन का प्रयोग किया जाता है। इस संबोधन से सहयोग तथा भावनाओं दोनों का तारतम्य एक साथ स्थापित किया जाता है।
महाश्वेता देवी के अनुसार स्त्री दमन का पूरा श्रेय पुरुषों को नहीं दिया जा सकता, वस्तुतः नारी उत्थान में पुरूष तथा पुरूष उत्थान में स्त्री का भिन्न भिन्न प्रकार से सहयोग रहा ही है, प्रथम महिला आई पी एस किरण बेदी का भी यही कहना रहा है, कि " किसी मुख्य बिन्दु पर आक्षेप करना तथा उसकी आलोचना करना एक पुराना ढर्रा ही रह गया है, और अगर इस बात से स्त्रियाँ अवगत हो ही गयीं थी तो इसका तोड़ क्यूँ न निकाला गया, सिर्फ़ विरोध तथा कोरा हुल्लड़ ही क्यूँ हुआ ", यहाँ किरण बेदी ने स्त्री तथा पुरूष दोनों की नब्ज़ को जोरों से पकड़ा है।
नारीवादिता का मुख्य आधार कम से कम यह तो है, कि स्त्री का दमन हुआ है, और इसका उपाय वर्तमान से नहीं, हमारे माज़ी तथा फर्द तक की सम्पूर्ण विचारधारा को नारीवादिता के अनुसार परिभाषित करना होगा। स्त्री के दमन के सदैव से मुख्य दो कारण रहे हैं,

" रुढिवादिता अथवा पूर्वाग्रह "
"
स्त्री सजगता का न्यून प्रतिशत "

स्त्री के लिए सदैव से वक़्त ने मर्सिये ही गाये हैं, और इस मामले में धर्म का सबसे बड़ा हाथ रहा है, लोगों की अशिक्षा ने उन्हें पूरी तरह से धर्म से जुड़ने ही नहीं दिया, और कुल मिलाकर धर्म के अनुयायिओं ने ही धर्म का बंटाधार कर दिया, जितना स्वयं धर्म ने नहीं किया उससे अधिक ख़ुद धर्म के कट्टरपंथी अनुयायिओं ने अपने अनुसार धर्म को परिभाषित कर दिया, अक्सर तुलसीदास का यह पद कानों में पड़ ही जाता है :-

"ढोल, गंवार,शुद्र पशु नारी ,
सकल ताड़ना के अधिकारी "

अगर किसी ने सलीके से रामायण पढ़ी हो तो वो समझता होगा कि " लंका जाने के लिए जब राम समुद्र से मार्ग खोज रहे होते हैं, और समुद्र की और से सहमति न होने से राम खाली प्रत्यंचा का प्रयोग करते हैं, और उपरांत सागर उपस्थित होकर क्षमा मांगता हुआ कहता है, कि मेरी तरह चाहे " ढोल,गंवार,शुद्र,पशु चाहे नारी हो, अपने कर्तव्य पालन के बाद भी उनको प्रताड़ना मिलती रहेगी" , इसका क़तई मतलब नहीं है, कि तुलसीदास ने स्त्री की आलोचना की है।
विचारधाराओं का स्त्री दमन सदैव से ही समाज में अशिक्षा की तरह व्याप्त रहा है। जिस प्रकार लोग अशिक्षित थे, और उनकी स्वयं की विचारधारा की अनुपस्थिति में वे प्राचीन ग्रंथों का सहारा लिया करते थे। इसमें " मनु,याज्ञवल्क्य,चाणक्य " सर्वोपरि रहे हैं।
दोयम मुद्दा यह, कि स्त्री के दिमाग में यह कूट कर भर दिया गया है, कि तुम एक पिछड़ी सोच की उपज हो। जो सिर्फ़ विरोधी आक्षेपों को सहने के लिए दुनिया में उपस्थित हुयी है। आज की स्त्रियाँ आधुनिक परिधान को स्वतंत्रता का विधान समझती है। और नारी स्वतंत्रता के जानिब उनके पास एक ही जवाब होता है " समाज एवं धर्म ने सदैव नारी की आलोचना की है "
मित्र मनोज द्विवेदी जी ने कभी कहा था कि, " स्त्री विमर्श में स्त्री का होना ज़रूरी है " ये वाकई में एक गहरा बिन्दु है। वैसे हर्ष का विषय है, कि आज स्त्री का मानस प्रगतिशील हो रहा है, और जो दलित वर्गीय स्त्रियाँ स्वयं कि सही परिभाषा चुनने में डरती रही हैं, ये प्रगतिशील स्त्रियाँ उन्हें, उनके होने का महत्त्व बताती है, और यहाँ से स्त्री के जन्म की महत्ता के भाव का उद्भाव तो होता ही है, कम से कम। और ये प्रगतिशील स्त्रियाँ एक जवाब भी तैयार कर रही हैं, उस वर्ग के लिए जो अक्सर आक्षेपी बाण स्त्री की जानिब रखकर खड़े होते हैं। परन्तु मुक्तिबोध की ही भाषा में एक जुमला कहा जाए तो ये होगा कि " जो है उससे बेहतर चाहिए " और इस सोच से बेहतर प्रगतिशीलता कुछ और कहीं नहीं होती। सुदामा पाण्डेय की "स्त्री" पर छोटी सी कविता यहाँ रखना मैं ज़रूरी मान रहा हूँ।

मुझे पता है

स्त्री--

देह के अंधेरे में
बिस्तर की
अराजकता है ।

स्त्री पूंजी है

बीड़ी से लेकर

बिस्तर तक

विज्ञापन में फैली हुई ।





निशांत कौशिक

[चित्र - खलील जिब्रान]

11 comments:

ओम आर्य ने कहा…

bahut hi sundar bishleshan kari hai aapane ......aurat har ek jagah par moujuda hai ....par upekchhaa ke paatra hai......badhiya

avinash ने कहा…

acchi analysis hai, aurat ko samajhne aur samjhaane ke liye kahin se prarambh ho wahan pratham aewam dusri naaree hi hogi..accha aalekh hai, shabd pryog accha hai

Unknown ने कहा…

bahut badhiya, accha aalekh hai, kavitaon aewam binduon ke uddhran ka pryog bhi uchit jagah kiya gaya hai. badhaai..

समय ने कहा…

काफ़ी अच्छा चिंतन हैं।
बंधे-बंधाये ढ़ांचे में ही रहकर स्त्री जब स्वतंत्रता के परचम उठाती है तब इसी तरह के विमर्शॊं में उलझकर रह जाना उसकी नियति है।
उसकी उपेक्षा इसीलिए होती है क्योंकि की जा सकती है।

आर्थिक स्वायत्ता पहला कदम होता है, आगे की स्वतंत्रता की संभावनाएं टटोलने की दिशा में। परिवार की संस्था दूसरा बडा अवरोध है और इसी पर पुराने संस्कार और नई आवश्यकताओं में द्वंद सबसे ज्यादा है।

आप बेहतर विमर्श कर रहे हैं।

वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें।
दूसरा यहां गहरी पृष्ठभूमि है, अतएव फ़ोंट कलर डार्क ना लें हल्का ही रखें। पढने मे तकलीफ़ होती है।

सुशीला पुरी ने कहा…

aap hain kaun???

arthaath ने कहा…

superb ,nishant bhai.... you have made a eye-opener description here ur style is very nice.......keep it up because if u are then we are

सागर ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
सागर ने कहा…

bahut achche...

डॉ .अनुराग ने कहा…

अद्भुत.... लगता है नहीं पढता तो बहुत कुछ छूट जाता ....बिंदास विमर्श है ...ओर कविता
देह के अंधेरे में
बिस्तर की
अराजकता है ।
स्त्री पूंजी है
बीड़ी से लेकर
बिस्तर तक
विज्ञापन में फैली हुई ।

जैसे एक ऐसा सच है जो ढका हुआ भी है कुछ उधडा भी.....तसलीमा ने एक ओर कविता कही थी कभी...
जी में आता हूँ
उसे एक धौल जमायूं ..
रस्स्स..साले

हाँ समय जी बातो पे गौर करे

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

यहाँ आकर लगा कि आज तक क्यों नहीं आए?
ईमेल सदस्यता ले रहा हूँ।
अनामिका की कविता चिकोटी काटती है, जिससे धर्मक्षेत्र में नारी की बहुत कम उपस्थिति का एक पहलू सामने आता है। लेकिन घोषा, अपाला, गार्गी, अरुन्धति और ज्ञात जमाने में मीरा की उपस्थिति कहीं इस कविता को चुनौती सी देती हैं। बलात्कार को यदि नारी के उपर होते आ रहे अत्याचार का 'प्रतिनिधि' मानें तो अभिधा का सहारा ले कह सकते हैं कि आम जन बलात्कारी नहीं। और यही बात मीरा की उपस्थिति और उसको मध्ययुग में भी मिले समर्थन, प्रोत्साहन को स्पष्ट करती है।

dhireshsaini ने कहा…

asad zaidi ko google search par dhundhte apke blog tak pahuncha. Anamika sach kah rahi hain lekin unka kavita sansar stree ko aksar mardon ki nigah se hi dekhta hai. sudama pande ki kavita bakvaas lagi. apka blog beshak bahut achha laga

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