शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

"निष्कर्ष"






















रितेश
की ये कविता, बिल्कुल भी साहित्यिक योगदान के लिए नहीं लिखी गयी है। चुनांचे इस कविता ने मौजूदा तंत्र की मिट्टी पलटाने की जिम्मेदारी ले ही ली है, अतः कवि एवं कविता जैसी रंगीन लालसाओं और सस्ते जुमलों से इस को लांघना न्याय नहीं होगा।
इस कविता का बिम्ब क्या है ? इसका शब्द प्रयोग कैसा है ? या यह किसी साहित्यिक कटघरे में खड़े होने लायक है भी, कि नहीं।ये कविता उन सभी भ्रामक बातों पर आक्षेप करती है, जिसे हम तथा हमारा समाज आसमान की तरह ढँक कर बैठा है, और उन पर भी जिसे ज़बरदस्ती भ्रामक बना दिया गया है। कविता का केन्द्रीय भाव त्याज्य के भ्रामक रूप को स्पष्ट करना भी है। रितेश जैसे बहुत लेखक इन आक्षेपों के शिकार होते रहे हैं, जिन्हें हम "नास्तिक","आतंकवादी", "अब्नोर्मल" या फ़िर एक लम्बी श्रृंखला से जोड़ दिया जाए तो कहा जा सकता है, कि "बात निकली तो दूर तलक जायेगी"

"सिद्धांततः
मैं
बदतमीज़ हूँ
क्यूंकि
,
तुम्हारे
लिए तमीज़ "भक्तिवाद" है
जो
तुम में गहरे बैठी है
पर मैं उसे चैलेंज करता हूँ"

पूर्वाग्रह की एक लम्बी श्रृंखला, और इसके नित नए निवेदन, चट्टान की तरह वास्तविक समग्रता पर छाये हुए हैं। संकीर्णता की समाप्ति या संकीर्णता से व्यापकता तक की दौड़ में यह चार पद "बदतमीजी" जैसे विशेषण अन्धानुकरण या अंध आस्थाओं के विरोध में खड़े खड़े सहर्ष ही स्वीकार कर लेते हैं, मगर आलोचना की एक अच्छी नींव बनाने में सफल भी होते हैं, ये भी स्पष्ट कर दिया करते हैं, कि रूढियां रुचियों एवं रुझानों के रांगे में बंधी होती है, अतः इनको चैलेंज करना भी इस तंत्र के तंतुओं को तोड़ने के लिए भारी शब्द है। और इसी तरह दौर की यथास्थिति पर पैने कुदाल मरते हुए, आतंकवादी जैसे बदनाम अल्फाजों को एक नया शब्दकोश देते हैं, या फ़िर कहा जाए कि नकारे हुए सत्य का पुनर्मूल्यांकन बहुत तरेरते हुए चाहते हैं, "निष्कर्ष" इस पुनर्मूल्यांकन का ही परिणाम है।

"
निष्कर्ष"


सिद्धांततः
मै अब्नोरमल हूँ
क्योंकि तुम्हारे बीच नॉरमल होना
कोई अपशब्द जैसा है
जो मैं कभी सह नहीं पाया

सिद्धांततः
मैं बदतमीज़ हूँ
क्योंकि तुम्हारे लिए तमीज़
भक्तिवाद है
जो तुम में गहरे बैठी है
पर मैं उसे चैलेंज करता हूँ

सिद्धांततः
मै नास्तिक हूँ
क्योंकि तुम प्रश्न नहीं करते
और मैं
तुम्हारी कनपट्टी पे प्रश्न ताने रहता हूँ

सिद्धांततः
मैं बच्चा हूँ
क्योंकि मेरे रीड़ है
और तुम रीड़विहीन_!

सिद्धांततः
मैं आतंकवादी हूँ
क्योंकि मेरा विरोध
तुम्हारे तंत्र के यथास्थितिवाद से है


निष्कर्ष निकला :-
अब्नोरमल
बदतमीज़
नास्तिक
आतंकवादी
बच्चे ही क्रांति लायेगें |



{रितेश मिश्र एक युवा कवि हैं, ये मूलतः इलाहाबाद के हैं। 'रंजीत के साथ मत खेला करो' , 'भोपाल का एक दिन 'तथा ऐसी ही कई रचनाओं के सृजक है, भोपाल में "युवा संवाद " संस्था के सदस्य हैं। }

निशांत कौशिक

8 comments:

avinash ने कहा…

Adbhut aur mahaan kavita,,ye acche acche logon ki gardan uda sakti hai,,,ek pal to mein hairan ho gaya ki kya aise bhi kavi hain,,,sabse accha nastik vaala bindu laga aur bhaktivaad,, behtreen in kavi mahoday se kahiyega aur likhte rahein aewam yahan post karte rahein,, ham bahut utsuk hain inko padhne ke liye bahut hi zyada...aapne kavita par jo sameeksha likhi hai vah to ek acche lekhak ki pahchan hai,, shabd pryog shuru se aapka accha raha hai,,taaham blog ko yadi thoda aur modify kiya jaye to bahut log hain jo yahan padhne aayenge aur samagri to hai hi acchi....

Avinash sharma

बेनामी ने कहा…

Asad zaidi ke baad ek aur behtreen kavita,, yaar aap la kahan se rahe ho.. itne acche kavi aur ye sajjan kahan chupe the,, inse kahiye ki saaamne aayein tatha ham logon ko padhate rahein,,mein to fan ho gaya,,net par search kiya inki ek aur kavita padhi " maa " vo bhi adbhut ewam uniq thi. kavita ke pahle jo lekh likha hai vo abhi badhiya hai.
khub accha,,likhte rahiye..

abhigyaan bandopadhyay,
khadagpur {w.b.}

ताहम... ने कहा…

Accha laga ki mishra ji ki kavita aap sabhi ko pasand aayi, dhanywaad, isiliye bhi ki mein aksar raat mein post karta hun aur aap turant hi us par apni tippani dete hain. ek nivedan hai, sabhi se ki kripya kar login kar comment devein. anonymous se humein search karne mein problem ho sakti hai..aur aapse chah kar bhi ham sampark nahin kar sakte..
dhanywaad..

Nishant kaushik
& taaham...

बेनामी ने कहा…

Ye hui na baat, ye hai asal mein kavita,,keep it up...


Rehaan

बेनामी ने कहा…

ek sampurn kavita, mere khyaal se mishra ji kavi nahin rebellious hain. inki kavita mein waqai mein prakhar prativaad dikh raha hai..behtreen..blog accha hai..aur saari kavitaon ka chayan bhi, chahunga ki ritesh ko aur padhun.

my.data@rediffmail.com

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…

adbhut kavita,kavita hone ka pura dharm nibha rahi hai, tatha vyavhaarik bhi hai. sameekshak jo bhi hain is kavita ke adbhut hai, unki bhasha se hi pata chal raha hai, ritesh ji ki kavita ek naya josh ewam soch paida karti hai..behtreen,,ritesh bhai aur likhte rahiye.. aap jaise lekhkon ki zarurat hai..

संदीप ने कहा…

निशांत, सबसे बड़ी बात यह है कि रितेश की कविता यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह है।
हां, आपने साइडबार में जो तस्‍वीर लगायी है वह भी अच्‍छी लगी।

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ताहम........