शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

दूसरो की जय से पहले ख़ुद की जय करें.,.

















ताहम
दौर की गाथाओं और इतिहास की सजगता पर ध्यान दिलाने वाली कुछ कवायदों को लेकर उपस्तिथ होने की कगार पर है. दायरों और सतही विभाजन से फलक तक के चिंतन की उपयोगिता शायद सामान्यतः ज़रूरी नहीं है मगर कुछ बातें ऐसी हैं, जो रोजी रोटी से ऊपर उठकर भी सोचने के लायक भी हैं, रोटी सदियों से निरंतर बनी समस्या है,मगर मुक्तिबोधिय या शैलेन्द्र रूप में कृतित्व वास्तव में रोटी के टेढ़े मेढ़े दरों तक पहुँचने का प्रयास भी हो सकता है.वह है कौन जो हमें हमारी भूख से अवगत करा रहा है, क्या मेरी भूख का आभास ये व्यवस्था है ? , जो मुझे जीने के लिए "मुहताज" जैसे शब्दों के नज़दीक छोड़ देती है..तो इस पेट पर होने वाले प्रजातंत्रीय शासन की भाषा सरल करनी होगी,

बकौल धूमिल "भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क रोटी है" क्या वह सपना ही है,जिसे हम अभी तक सपना ही कह रहे हैं या सब धुआं की तरह धुआं ही हो रहा है,वास्तव में आवाज़ मेरे दिमाग़ से भी आती है जब मुझे आवश्यकता के लिए सृजन के दिलासे देने पड़ते हैं,लगता है लोगों की परिभाषा और व्याकरण साहित्य के मुताल्लिक़ बदलना ही चाहिये, या फिर इतिहास को॥ और "मुम्बैया खून खराबे" को शब्दों में बांधकर बाज़ारों में रोयल्टी के लिए बेच देना चाहिये, कम से कम उस शब्दों के खिलाडी का पेट तो भरेगा ही.,,रासो से गुलज़ार तक कितनी बातों और युग के कितने नक्शे बदले मुझे नहीं पता मगर मैं चाहूँगा { आत्मीयता का निवेदन} कि आवश्यकता बदलाव की है, और अगर साहित्य उसका माध्यम बनता है तो वह भी अच्छा है, ताहम प्रगतिशील चिंतन का समर्थक है, जो ज़माने की पूर्व विकसित मान्यताओं को माथे बाँध कर चलते हैं, ताहम उस पर एक ज़ोरदार प्रहार होगा, ज़रूरत यह कि चाहे कोई भी विचारधारा हो वह यदि आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होती है, वह ही अन्तिम सत्य है। रुकी हुई विचारधारा एक गंदे तालाब की तरह है, और चलता हुआ, बढ़ता हुआ चिंतन सरिता है ताहम है। और इस विकसित सोच में यदि आड़े आने वाला कोई मुद्दा है, वह चाहे धर्म हो चाहे अनुकरण के आधार पर बनी लम्बी रेखा हो, उसके लिए हमारे पास एक टका सा जवाब ही होगा, स्वीकारिता आपकी मर्ज़ी होवेगी, यदि मुद्दों को बहस बनाया जाए तो ताहम स्वयं उसको एक पुरज़ोर बहस बनाने में मदद करेगा, और सदैव ऐसे विरोधी बहसों के तैयार रहेगा।विश्वास मात्र आवश्यकता की पूर्ति ही है, और विश्वास स्थिर नहीं है, विश्वास भी प्रगतिशील है, और जहाँ प्रगतिशीलता है वहां ताहम है

निशांत कौशिक

6 comments:

बेनामी ने कहा…

waah kya baat likhi hai.. waah...bahut acche.. bahut accha likh rahe hi nishant...purushottam agrwaal ji ne jo side mein thoda sa likha hai vo to hai hi behtreen...aur my profile mein jisne bhi likha hai..bahut accha likha hai.. likhte rahiye...accha blog hai...sab alg hai aur naya bhi...

Adil..

ताहम... ने कहा…

shukriya adil ji, my profile mein aadarneey Ritesh mishr ji ne likha hai,, acche yuva kavi aewam lekha hain, sath hi ek acche journalist bhi....

Nishant kaushik

बेनामी ने कहा…

nishant and ritesh and all blog member you all doing good job. blog is awesome. specially " dusron ki jay se pahle " is very well written by nishant ji. "hamare baare mein" & " chand baatein kahni hain" by shri agrwaal,are very much appriciated, Also very good research on "urdu". since the blog is just begining,should not use the criticism there now.As it is said to both articles are good. and really deserve to apprciation..

Shubho das/Jadavpur..
My.data@rediffmail.com

Nishant ने कहा…

Thanx shobho..hope that,u will come next time with some arguments/logic and questions.


Nishant kaushik

avinash ने कहा…

behtreen shabd pryog,, shabd pryog se hi pragatisheelta jhalak rahi hai.. keep it up likhte rahiye...

avinash

गौतम राजऋषि ने कहा…

निशांत कौशिक जी को नम्स्कार...

किसी ब्लौग पर (शायद डा० अनुराग के ब्लौग पर) आपकी टिप्पणी पढ़कर आपको खोजता हुआ आ धमका। कुछ प्रविष्टियों ने पहली दृष्टि में अपना बनाया तो आपके पहले पोस्ट पर आ धमका।

अब समर्थक में क्लीक कर आपको चिह्नित कर लिया है तो आता रहूंगा। आपको पढ़ना अच्छा लगा है...बहुत अच्छा लगा है।

शुभकामनायें!

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ताहम........