शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

शीर्षकहीन कविता


मन की कई अवस्थाओं में एक अवस्था उत्तेजना होती है, उत्तेजना को एक समूल तर्क के साथ यदि आस पास घट रही मुसलसल घटनाओं से जोड़ कर देखा जाए तो इस कन्वर्ज़न को चैतन्यता कहते हैं. यह घटनाएं हमारे निजी मसलों से भी जुडी होती हैं, एवं सामाजिक सरोकारों से भी सम्बद्ध. उत्तेजना हर पल उठती है, किन्तु इस सामाजिक उत्तेजना को पुनः निजी स्वार्थ से जोड़ा जाए तो यह अभी अभी घटे स्वच्छ वातावरण पर प्रतिवाद के स्तर पर पूरे समाज की चेतना बन जाती है. जो और कुछ नहीं अपने आप में एक 'मुकम्मल बयान होती है' उत्तेजना से चैतन्यता तक के ट्रांसफारमेशन का एक अंश लिए हुए एक कविता. कविता बहुत बार अपने मानसिक चरित्र से बाहर आकर अपने पास मौजूद तर्क प्रस्तुत करती है, और पुनः पुनः लौट जाती है वहीं 'निजी' घटना की ओर. इस बाहर आने की अवधि से सामाजिक सम्बद्धता और पुनः अपने चरित्र में लौटने तक का दौर ही गवाही है, एक ''शीर्षक हीन कविता"।


पहुँच से बाहर नहीं है मेरे
कुछ भी
लेकिन जब मैं पहुँच जाता हूँ वहां
तो बाहर हो जाता हूँ उस ' कुछ भी' से
अपने आप

स्वप्न कुछ नहीं होता
मगर कुछ भी हो जाता है मेरे लिए एक स्वप्न !

अपने लिए कोई सटीक उदाहरण तलाशता मैं
भटक जाता हूँ
जान बूझकर
उस ' प्रसन्न अवस्था ' में जाने से पहले

धीरे से एक ठुनगी मार कर गिरा लेता हूँ
अपना बना - बनाया घर
मारे डर के
कि कहीं मैं बेरोजगार न हो जाऊं

उन दिनों मैं
कुछ ठहर सा गया था
किसी एक बहुत साधारण लेकिन 'सुरक्षित काल' में
और एक दिन
मेरे कान के बहुत पास कोई चिल्लाया
" डरपोक ! तू बेरोजगार है, मानसिक मंदी का शिकार है "

फिर घर, घर कहाँ होते हैं आजकल
कालिख पोतने और पोंछने की जगह बनके रह गए हैं...बस

घर बनाने वालों की शान में
बाहरी दीवारे बिल्कुल साफ रखी जातीं है
छज्जों पर बैठे कबूतरों को गोली मार दी जाती है

इसीलिए मैं एक ठुनगी में गिरा देता हूँ अपना घर
कि
न कालिख पोती जाये
न पोछी जाये
न कबूतरों को गोली मारी जाये
और उसमे मेरा निहित
निजी स्वार्थ ये
कि मैं बेरोजगार न होने पाऊं

हम बिना घर वाले लोग
ठीक - ठाक होते है
हालाँकि हमारे हाथ कुछ भी लग जाये
तो वो कुछ भी नहीं रहता
हम अच्छी तरह समझते है
कि हमारे पहुँच के बाहर कुछ भी नहीं है
'घर' भी नहीं
लेकिन हम,
हम बेरोजगार नहीं होना चाहते |




कविता - रितेश मिश्र

_निशांत कौशिक

9 comments:

सागर ने कहा…

हम्म तो रितेश मिश्र की कवितायेँ तुम्हें बहुत पसंद हैं... मुझे भी अच्छी लग रही है और मैंने इसे तुम्हारे मार्फ़त ही जाना है "रंजीत से साथ मत खेला करो", जैसे याद ही हो गयी है...

और हाँ जरा आते रहा करो यार दिस्च्स्पी बनी रहती है...

सागर ने कहा…

aur haan tasweer bejod hai bhai

दिलीप ने कहा…

bahut khoob...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

दिलीप ने कहा…

sir padh kar hi di hai....

Shekhar Kumawat ने कहा…

fir bhi sundar kavita



shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/\

सुशीला पुरी ने कहा…

शीर्षक विहीन कहाँ रहने दिया आपने ? बहुत सारगर्भित ..........

Amitraghat ने कहा…

यही हकीकत है कि हम बेरोज़गार नहीं होना चाहते.....। "पर कविता में भूमिका की कोई आवश्यकता नहीं होना चाहिये नहीं तो ये पैरवी लगती
है..."

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

हम बिना घर वाले लोग
ठीक - ठाक होते है
हालाँकि हमारे हाथ कुछ भी लग जाये
तो वो कुछ भी नहीं रहता...

कहीं गहरे उद्वेलती कविता....

डॉ .अनुराग ने कहा…

हम बिना घर वाले लोग
ठीक - ठाक होते है
हालाँकि हमारे हाथ कुछ भी लग जाये
तो वो कुछ भी नहीं रहता
हम अच्छी तरह समझते है
कि हमारे पहुँच के बाहर कुछ भी नहीं है
'घर' भी नहीं
लेकिन हम,
हम बेरोजगार नहीं होना चाहते |


सच कहा......कविता को अब दिलचस्प कहने की रवायत से बाहर निकलना होगा .....

अरसे बाद नज़र आये...जिंदगी के शीर्षक में अटके थे कही ?

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