शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

स्वतंत्रता बनाम संस्कृति


" सब्जेक्शन ऑफ विमेन" में जान स्टुअर्ट मिल कहते है, " बहुत से कारण हैं जो इस विषय से जुडी भावनाओं को कहीं ज्यादा ठोस और कहीं ज्यादा गहरे तक पैठी हुई बना देते है। उन तमाम भावनाओं के मुकाबले जो पुरानी संस्थाओं और रीति रिवाजों की रक्षा करती हैं, यही वजह है कि बड़े पैमाने पर आधुनिक,आध्यात्मिक और सामाजिक बदलाव के बावजूद ये भावनाएं न तो कमज़ोर पड़ी हैं, न ढीली हुई हैं।हर लिहाज से सारा दायित्व उन लोगों पर आ जाता है जो एक लगभग विश्व्यापी धारणा को चुनौती देने की कोशिश करते हैं, उन्हें इस बात के लिए भी बहुत सौभाग्यशाली और असाधारण रूप से कुशल होना पड़ता है कि उन्हें कम से कम सुन तो लिया जाए। किसी भी दूसरे अभियोगी के मुकाबले उनकी सुनवाई ज्यादा मुश्किल होती है, और अगर सुनवाई हो भी जाए तो उन्हें ऐसी तार्किक कसौटियों पर कसा जाता है जो दूसरों से बिलकुल अलग होती हैं। दूसरे हर मामले में प्रमाण की जिम्मेदारी दोष लगाने वाले पर होती है। अगर किसी पर हत्या का आरोप है, तो आरोप लगाने वालों को उसे दोषी सिद्ध करना होता है, खुद उसे अपने आप निर्दोष सिद्ध नहीं करना पड़ता। किसी ऐतिहासिक तथ्य को लेकर मतभेद हो, जिसमें ज़्यादातर मनुष्य की भावनाएं नहीं जुडी होतीं, सिर्फ वही प्रमाण देते हैं, जो किसी किस्म की स्वतंत्रता के खिलाफ हों। "

इस पूरे कथन में, जे. एस. मिल श्लेषात्मक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, और इस पूरे कथन को इस लेख के शीर्षक के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है। वाक़ई प्रेम पर कुछ कहना, उत्साहित होने जैसी भावना को जन्म देना है, लेकिन इस सदी के भयावह वैचारिक आक्रमणों ने प्रेम पर भी आँखें तरेरना चालू कर दी हैं, और ये सज्जन कथित संस्कृति रक्षक होने का दंभ भरते हैं (बंदउं संत असज्जन चरना - तुलसीदास)। और ये शर्मनाक है कि प्रेम के आनंद और इस सद्भाव के विनिमय की अपेक्षा हम उसमें संस्कृति के नाम का अवरोध लगा रहे हैं, और सबसे बुरा ये कि अब हर जानिब प्रेम के परिणामों को लेकर ज्यादा बातें हैं।

ये बहुत अजीब बात है, कि भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में बात करने वाले संस्कृति के शब्दकोश सिर्फ से हर बार बस २ शब्दों को चुनते हैं, "युवा पीढ़ी की अमर्यादित आधुनिक संस्कृति" और "आधुनिक व्यवहारिक दैहिक प्रेम की भयावह शक्लें"। गोया इस सदी के पहले कोई युवा नहीं हुआ, या फिर "आधुनिक" शब्द सिर्फ बीसवी सदी के पहलू में आता है। संस्कृति के बात करते समय भी ये तथाकथित रक्षक सतर्कता से "मर्यादा" जैसे शब्दों को बरतते हैं, और सन्देश के तौर पर अपनी पिछली पीढ़ी के प्रेम करने के तरीकों को प्रस्तुत करते हैं।

जर्मन दार्शनिक "गेटे" (Goethe) ने कालिदास द्वारा प्रेम पृष्ठभूमि पर लिखा गया विश्प्रसिद्ध नाटक "अभिज्ञान शाकुंतलम" का जर्मन अनुवाद किया था, भारत में, चाहे वात्स्यायन का कामसूत्र हो या फिर फिर खजुराहो की काम कला आधारित प्राचीन मूर्तियाँ, सभी प्रेम के भिन्न भिन्न भागों का प्रतिबिम्ब हैं।

संस्कृति जैसे शब्दों का अमानवीय तरीके से अपने हित में प्रयोग, प्रेम जैसी भावनाओं को ध्वस्त करने में कैसे मशगूल हो सकता है। या फिर प्रेम इतना बड़ा तर्क है कि, संस्कृति को नकार दे। प्रेम में मन, भावना और दैहिकता का अलग अलग महत्त्व है, मगर ये इतना शक्तिशाली नहीं, संस्कृति जैसी गतिशील सामाजिक व्यवस्था को खतरे में डाल दे। इससे बड़ी दुर्गमता ये कि संस्कृति की दुहाई देकर प्रेम विरोधी या प्रेम के तरीकों का विरोधी ये वर्ग भविष्य को अपने इतिहास से नफरत न सिखा दे।

सामाजिकता,संस्कृति,विचारधारा गतिशील हो सकते हैं, मगर भावना नहीं, भावना कोई तर्क (logic) नहीं, वरन एक अमूर्त आकर्षण [An abstract attraction] है। जो संस्कृति हमें प्रेम करने की नसीहत दे, वो विचारों को बांधने और तरीकों की नासेह नहीं है। यदि ऐसी संस्कृति वैयक्तिक स्वतंत्रता के खिलाफ है, तो विरोध आवश्यक है, और विद्रोह भी। स्वतंत्रता सिर्फ प्रेम में नहीं, समाज में हर पारस्परिक संबंधों में भी होनी चाहिए, और इस पर आक्रमण अयथार्थ तौर पर पारिवारिक तथा प्रत्येक स्त्री पुरुषों के आपसी सम्बन्ध पर भी हस्तक्षेप करना है।

क्या भारतीय संस्कृति का अर्थ हिन्दू संस्कृति है, क्या भिन्न भिन्न जातियां प्रेम करने के अपने तरीके लेकर आई थी, जिनका आधुनिक प्रभाव हमारी आधुनिक पीढ़ी पर पड़ रहा है,भारत में शासकों की झंदेबर्दारी के बावजूद संस्कृति के एक भाग में सतत परिपक्वता रहती बनी रहती है, ये एक गंभीर बात है, चाहे वो फाह्यान, हो या ह्वेन त्सांग मैगस्थ्नीज़ या फिर इब्ने बतूता, इन सभी अभारतीय यात्रियों की रचनाओं में संस्कृति के अंतर्भाव के प्रति मतैक्यता ज़रूर है। इसे ही संस्कृति का प्रभाव या उसकी आत्मा कहा जाता है। जो गतिशील होने के बावजूद अपना महत्त्व बनाए रखती है, और जिस संस्कृति के नाम पर युद्ध होते हैं, वो एक बहरी ढांचा है, जो बनाया जाता है, तोड़ा जाता है। बस अपने दौर का रंग उसमें चढ़ता जाता है। और इस ढांचे के प्रति निश्चिन्तता, हर दौर के अपने प्रेम को एक सुकोमल विस्तार और इज़ाज़त देगा आगमन की। युवा कवि निशांत की एक उत्कृष्ट कविता "अट्ठाईस की उम्र में" के साथ लेख समाप्त करता हूँ।

सचमुच यही उसके प्रेम करने की सही उम्र है
जहाँ उसके सपनों में लहलहा रहा हो
एक पवित्र सुर्ख़ लाल गुलाब

इसी उम्र में दिल से निकलती है सच्ची प्रार्थना
जिसे कबूल करने से हिचकिचाता है समाज
इसी उम्र में खुलते हैं डैने जिससे तुलना पड़ता है सारा आकाशJustify Full
इसी उम्र में पैर में लग जाते हैं चक्के
जिससे नापनी पड़ती है सारी पृथ्वी

यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण उम्र होती है
जहाँ सबसे ज़रूरी होता है एक अनुभवी प्रेमी का अनुभव
पर अफ़सोस अपने अनुभव को सबसे श्रेष्ठ और सबसे पवित्र बताते हुए
हम ठगे जाते हैं
कभी-कभी हम जीत जाते हैं और जश्न मनाते हुए
रंगे हाथों पकड़ लिए जाते हैं अपने अन्दर ही

यहाँ तन हावी नहीं होता मन पर
मन बहुत ही हल्का पारदर्शी और पवित्र होता है इस उम्र में
तन की बात ही नहीं करता मन

ऐसी स्थितियों से गुज़र चुका हूँ मैं
जहाँ सिर्फ़ दो आँखें और दो बातें ही महत्त्वपूर्ण होती हैं
इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होता है
सपने में लहलहा रहे सुर्ख़ पवित्र गुलाब का लहलहाते रहना
पर क्या करूँ

जब सुबह उठता हूँ रात में भंभोड़ दिए गए
एक जंगली जानवर के पंजों तले अपने क्षत-विक्षत शव को लिए
तब लगता है बिना तुम्हें पाये तुम्हें प्रेम करना एक नाटक करना है

कई बार सोचा तुम्हें कहूँ
प्रेम की अन्तिम परिणति दो रानों के बीच होती है
हर बार बीच में आ गई
तुम्हारी दो आँखों में दिपदिपाती हुई पवित्रता
लहलहाता हुआ सुर्ख़ गुलाब
और ऐसा क्यूँ लगा कि गंगा से नहाकर माँ के साथ लौट रहा हूँ घर
शायद तुम्हारे अंदर मेरी माँ भी है

एक बार इसी पवित्रता से डरकर
एक और पवित्रता की खाल ओढे तुम्हें निमंत्रित कर बैठा था
-- चलो शादी कर लें।
-- " नहीं, पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद
तुम्हारे सामने अंदर का जानवर न जाने क्यों शांत ही रहता है
उस दिन उस समय भी शांत रहा
जबकि रात में बिस्तर पर एक बार और वह हिंसक हो उठा था
मैं मज़बूर- लाचार हो 'प्यार' , 'पवित्रता' जैसे शब्दों से क्षमा-याचना मांगता रहा
अपने को भंभोड़वाते हुए

तुम क्या जानो
एक अट्ठाइस साल की उम्र के लड़के की ज़रूरत
जो अपनी उम्र चौबीस साल बतला रहा हो
आख़िर तुम्हारी उम्र कम है
और इस उम्र से मैं भी गुज़र चुका हूँ

कविता - निशांत (JNU. Delhi)

_निशांत कौशिक

6 comments:

Unknown ने कहा…

js mill....sahi kah rahe hai...unki ye book me ne padhi hai..taaham accha kam kar raha hai...mujhe isse bahut aashayen hai..chalte raho..

सागर ने कहा…

waah. behtareen

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

आपकी गंभीर बानगी के साथ...
दिल को छूती हुई कविता...
हमेशा कहीं अंदर कुछ खदबदा जाती है...

avinash ने कहा…

lekh ke antim para me...aap zaruri aur jabardast baat kah gaye..badhai..bahute accha, gambhir lekh...ravi ji ke shabdo ke sath...sahmat hu..aur niket ji ke sath bhi..

डॉ .अनुराग ने कहा…

प्यार भी एक अनसुलझा रहस्य है ओर रहेगा .यूँ भी इसका वाइरस अपने डी एन ए के अमीनो एसिड की सिक्वेंस बदलता रहता है ...कोई एंटी डोट नहीं ....१६ की उम्र का प्यार २८ की उम्र के प्यार से जुदा होता है ......ओर ४० का भी .५५ का भी.....ओर अब तो किसे फुर्सत है इस मसरूफ ज़माने में प्यार की .गोया ओर भी जरूरी मसाइल है सुलझाने को......
.

दर्पण साह ने कहा…

Shayad 'Samkalin bhartiya shatiya' ke 2007 edition main padhi thi ye kavita (27-28-29 ki kshrinkala ke saath.)

Phir Phadvaee...
Dhanyavaad.

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ताहम........