सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

कुछ कहूँ...


लेखन का वक़्त के प्रति सदैव योगदान होता है, चाहे वो व्यक्तिगत तौर पर हो, या सांगठनिक तौर पर। साहित्य और पत्रकारिता भी ऐसे दो क्षेत्र है। ऐसे दौर में जब वक़्त अपने विरुद्ध खड़ी दीवार को मिटाने के लिए ज़द्दोज़हद कर रहा हो, और ऐसे समय में यदि कोई आत्ममुग्धता का प्रलाप करते हुए, या व्यक्तिगत सुखों की मीमांसा के तौर पर उपजी इस बात को सामने रखे, तो हम इस बात को पूरी तरह नागवारा न कहें। हाँ मगर जब भविष्य अपने अतीत को खंगालता है, तो एक एकल वैचारिक श्रेणी में आत्ममुग्ध आत्माओं का संकरण उसे परेशान कर सकता है, ऐसे ही जैसे जयशंकर प्रसाद (सिर्फ एक उदाहरण के मद्देनज़र) के पिछले और जयशंकर प्रसाद के अगले दौर में जयशंकर प्रसाद की "कामायनी" सरल दार्शनिक चिंतन, और "आंसू" उनके व्यक्तिगत मीमांसा का परिणाम है। मैं इसे गलत नहीं मानता, लेकिन फिर भी यह थोडा परेशान कर देने वाला मसला है, यदि हम कहें कि साहित्य अपने समाज का तथा अपने वक़्त का आईना है। तो अपने वक़्त में जयशंकर प्रसाद अकेले खड़े दिखाई देते हैं। हाँ, यह सत्य है ! कि हर वक़्त विचारधारा के अंतर्गत नहीं सोचा जा सकता, कभी कभी व्यक्तिगत सुखो, आनंद या दुःख की पराकाष्ठा को उबल कर सामने आना ही पड़ता है, मैं पुनः जयशंकर प्रसाद का नाम यहाँ ले रहा हूँ।

खैर, ये तो हुआ माज़ी। अब होती हैं मौजूदा दौर की बातें, इस दौर के बारे में यही कहूँगा कि हर क्षेत्र के लिए यह सबसे दुष्कर दौर है, जहाँ चुनाव करना होता है, खुद का और समाज का, और अधिकतम चुनाव में, आदमी ही अकेला जीतता है, समाज नहीं। और यही इस दौर की सबसे प्रमुख समस्या है। कम से कम साहित्य हमें इतना स्पेस देता है, कि अपने अन्दर पल पल घट रहे समय को कागज पर उकेर सकें, कि हम अपने वक़्त के दैनिक मूल्यांकन को अपना विषय बनाएं जो कि समाज के लिए भी घटित है। मगर सरलीकरण के चलते ये जुमले बेमायने हैं, और अक्सर कान में बस यही सुनाई देता है, "जो प्रचारित है, वही प्रमाणित है", इस तरह साहित्य से भी बहुत कुछ आशा करना बेकार है। पत्रकारिता भी ऐसा क्षेत्र है, जो हमें धीरे धीरे व्यवसायिक ख्वाबों से बाँध देती है, यहाँ वक़्त का मूल्याँकन अब संभव नहीं, अब बस अखबारों और चैनल्स के मूल्याँकन का दौर है, मठाधीश जनता है, तरह तरह के तरीकों से परोसी गयी खबरें दुखद घटनाओं को करारा बनाकर बेचती है। ये एक साधारण और महत्वहीन बात हो सकती है। और इनको समझने के लिए किसी ख़ास नज़र का होना लाजिमी नहीं है। क्षमा करें ! इन बातों को सरलता से समझाने के लिए मैं फिर से साहित्य के पास जा रहा हूँ, एक रचना को इस लेख के साथ चस्पा कर रहा हूँ। इस के रचनाकार रितेश मिश्र खुद एक पत्रकार हैं, रितेश इन रचनाओं को दोहा कह रहे हैं, मैं कोई वैयाकरण तो नहीं, मगर दोहों के लिए जो, मूल छंदज्ञान की मांग है, रितेश उस मांग को पूरा नहीं कर पाए हैं। अतः इस रचना को दोहों की जगह मैं रचना ही कह रहा हूँ। खुद रितेश की भाषा में , "पत्रकारिता अपने मूल अर्थों से हट गयी है, इस शुद्ध समझ को अशुद्धों को समझाने के लिए, रचना को दोहा कहना बुरा नहीं " रचना प्रस्तुत है।



चुहरुक- चुहरुक चल पड़ी पत्रकार की रेल।
झोले भीतर सब रखा चन्दन, चूना, तेल॥

ऊपर से सब रंग नवा, अहंकार के में चूर।
भीतर से कोई कह रहा, "भक ससुरे मजदूर"॥

चाहे कुछ भी बांच लो नहीं पड़ेगा फर्क।
गुरवर कुंजी दे गए सब कुछ है संपर्क॥

भूखा नंगा मर गया , उस टाकीज के पास।
एक कलम की हेडिंग है "अज्ञात पड़ी है लाश"॥

छुटभैया तो सारे हैं , पत्रकार की नोक।
बड़भैया की नज़र में , रक्तपिपासु जोंक ॥

_रितेश मिश्र

_निशांत कौशिक

4 comments:

सुशीला पुरी ने कहा…

sochne ko majbur huye........

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

माज़ी, मौज़ूदा, रितेश और ये रचनाएं...
बेहतर...

डॉ .अनुराग ने कहा…

सारी ज़द्दोजेहद इस जमीर को स्ट्रेच करने की है......कुछ लोग दूर तक खींच कर ले जाते है .कुछ खींचते नहीं.....यानी ह्रास पुरे समाज का हुआ है ..ओर समाज हमी ने बनाया है .सच भी कई तरह के है......उसका सच..मेरा सच

avinash ने कहा…

Har baar kee tarah aapki ye post bhi acchi hai...aur ritesh ki kavita yaha lagani waise bhi aavahsyak thi..aapke lekh ka pura spasht bayaan ritesh ki kavita kar rahi hai...badhai ritesh aur aapko..

avinash

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ताहम........