मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

"भाषाई साम्राज्यवाद" और हिंदी का विकल्प

लेख के पहले, शीर्षक और रुपरेखा स्पष्ट करना आवश्यक हैइस संक्षिप्त लेख के अंतर्गत भाषाई साम्राज्यवाद से परिचय और हिंदी के विकल्प पर प्रश्न उठाया गया है, सैद्धांतिकता के कारण लेख अस्पष्टता के रूप में सामने सकता हैहिंदी के विकल्प से आशय, हिंदी के राजभाषा और आज के समय में, अन्य भाषाओं [अंग्रेजी मुख्यतः] के प्रभुत्व के कारण, हिंदी काफी नाज़ुक मोड़ पर हैये नहीं कहा जा सकता कि हिंदी का लोप हो रहा है, मगर अधिकांशतः यह सही कहा जा सकता हैऐसे में हिंदी को राजभाषा बनाने की नीति पर भी सोचना आवश्यक है, कि मुग़ल और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के बाद क्या हिंदी को अपना स्थान बनाने के लिए इतना स्पेस मिला कि वह राजभाषा के रूप में आसानी से स्वीकारी जाती, बेशक नहीं, भले ही हिंदी में साहित्य प्रचुरता से लिखा गया, लेकिन फिर भी भाषाई साम्राज्यवाद की परिभाषा के अनुसार अंग्रेजी भाषा ने भारत में पैर पसारने शुरू किये,और हिंदी पर खतरे जैसे अनुमान सही होने लगेऔर वर्तमान में, अंग्रेज़ीदां, हिंदी दां पर प्रभुत्व के रूप में सामने आने लगेकुल मिलकर लेख पर इस बात को केन्द्रित करना लक्ष्य है, कि हिंदी को राजभाषा बनाने की नीति कितनी कारगर थी, और आज साम्राज्यवादी भाषा का हिंदी पर कितना दुःख मय प्रभाव है,उससे सभी परिचित हैंलेख का अर्थ बिलकुल भी हिंदी भाषा की उपेक्षा के मंतव्य में लिया जाए

भारत में "भाषाई साम्राज्यवाद" ( linguistic imperialism ) को लेकर, बहुत गंभीरता से बहस मुबाहिसे हो सकते हैं, ख़ासकर हिंदी के विकल्प को लेकर। हिंदी ह्रास के गीत गाने वाली जमात, जिसमें अदबी तौर पर बहुत से बेसमझ जुड़े हुए हैं। भारत में ऐतिहासिक और भावी दृष्टिकोणों को लेकर भाषा केंद्र बिंदु में हमेशा रही है, चाहे वो " मगध में हर्यंक वंश " की समस्या रही हो, दक्षिण में चोल,चालुक्य,पांड्य की समस्या रही हो। या इस दौर में छोटे राज्यों के गठन की मांग को लेकर भाषा की समस्या फिर वही किरदार निभा रही है। यह तो हुआ भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिवेश में भाषा का विचार। मगर भाषा विज्ञान के हर भाषा के लेकर निजी तर्क हैं, भाषा विज्ञान भी भाषा को परत दर परत एतिहासिक समीक्षा के ज़रिये या भाषा के अपने स्वभाव को लेकर भाषा के लिए अपनी नैतिक परिभाषाएं जुटाता है, मगर प्रश्न इन भाषाओं के साथ बने तमाम मसाइल के साथ है, उर्दू - हिंदी का झगड़ा अभी तक नहीं थमा। शम्शुर रहमान फारुकी के उर्दू पर आलोचनात्मक और सुलझे नज़रिए, या फिर ग़ज़ल को लेकर छिड़ी हुई बहसों पर दुष्यंत कुमार का जवाब, आज भी आमफहम उर्दू-हिंदी झगड़ों को नहीं मिटा पाया। इन सब बातों के अलावा भाषा विज्ञान के दृष्टिकोण से एक बात और सामने आती है, जिसे भाषाई साम्राज्यवाद कहते हैं, मुख्य तौर पर भारत में, भाषाई साम्राज्यवाद और हिंदी के राजभाषा बनाने के विकल्प पर बहसें तो होनी ही चाहिए।

प्रश्न यह कि भारत जैसे देश जहाँ वैदिक संस्कृति से लेकर ब्रिटिश औपनिवेशिक विस्तार, और अंततः १९४७ की आजादी के बाद हिंदी का प्रयोग और भाषाई साम्राज्यवाद जैसे बहुत से प्रश्नों के साथ खड़े हैं। जानना ज़रूरी है, कि भाषाई साम्राज्यवाद है क्या ?

"भाषा विज्ञान के बहुत सारे दृष्टिकोणों में एक कड़ी भाषाई साम्राज्यवाद के अनुसार किसी क्षेत्र विशेष [क्षेत्र से अर्थ आर्यावर्त या देश ले सकते हैं] की राजभाषा पर अन्य भाषाओं का बहुलता से प्रभाव पड़ना, और ये अन्य भाषाएँ उसी देश की लोक भाषाएँ भी हो सकती है, सबसे अच्छा उदाहरण अंग्रेजी है, इन्ही अन्य भाषाओं के प्रभाव में मुख्य भाषा का ह्रास होकर अन्य भाषाओं का प्रभाव धीर धीरे बढ़ता है, और इस प्रभाव भाषा [अंग्रेजी अर्थ ले सकते हैं] को बहुत सारे क्षेत्रों में अपने प्रभावी प्रस्तुतीकरण के लिए प्रयोग किया जाता है। और इस भाषा से अनभिज्ञ जन अपने ही देश में अपनी राजभाषा के जानने के बावजूद एक भाषाई तौर पर निम्न वर्ग की श्रेणी में आ जाते हैं, क्यूंकि उनका इन भाषाओं को समझना थोडा दुष्कर होता है, सरलीकरण के दौर में, भारत में द्विभाषा [अंग्रेजी आदि] , राजभाषा [हिंदी] जानने वालों पर धौंस ज़माने के तौर पर ज्यादा प्रयोग होता है। और इसका असर व्यापक तौर पर इस नई भाषा से अनभिज्ञ रहने वालों युवाओं, बच्चों पर पड़ता है, खासकर उन लोगो को जो कमसे कम आर्थिक रूप से निम्न वर्ग में हैं, तो भाषाई साम्राज्यवाद इस तरह से वर्ग विषमता भी लाता है। यह तो हुआ, भाषाई साम्राज्यवाद से संक्षेप में परिचय।

मुख्य बिंदु अब यह कि, भारत में लम्बे समय से चले आ रहे, गुलामी के दौर, उपनिवेशवाद [ जो अपनी भाषा का व्यापक प्रभाव भारत में छोड़कर जाते थे ] और आज जिस हिंदी का हम प्रयोग करते हैं, [ जिसे राजभाषा का दर्ज़ा प्राप्त है, यहाँ मैं साहित्यिक हिंदी शब्द नहीं प्रयोग कर रहा हूँ, सरल शब्दों में हम इसे सामाजिक हिंदी कह सकते हैं, हिंदी के साथ वह सुलभता और सुगमता नहीं है जो आसानी से बांग्ला में हैं जहा साहित्यिक और शहर की बोलचाल की बांग्ला में बहुत फर्क नहीं होता, और यदि राजभाषा कहलाने वाली हिंदी साहित्यिक हिंदी है तो तर्क ये कि श्री लल्लू लाल जी की रचना प्रेम सागर में प्रयुक्त मुरादाबादी, या पुराने पटियाला रियासत की खड़ी बोली, जो हिंदी कही जा सकती है, वर्तमान में मुक्तिबोध [उदाहरण के तौर पर] की हिंदी से बहुत अलग हैसाहित्य में जो लल्लूलाल जी से मुक्तिबोध के बीच क्रांति हुई, यह क्रांति सामाजिक परिवेशों में नहीं हुई, सिर्फ साहित्य तक सीमित थीइससे यह भी स्पष्ट होता है कि साहित्य में भाषा का और कठिन और क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग का चलन कितनी तेज़ी से चला " ) उसका अस्तित्व कितना है ? अक्सर तर्क उठता है कि फारसी के रचनाकार अमीर खुसरो [१२५३-१३२५] के कलाम में प्रयुक्त फारसी के साथ विभाषिक शब्द कहाँ से आए, कि खुसरो का दौर उत्तर प्रादेशिक राज्यों के गठन के बाद और दिल्ली में तुर्कों की सल्तनतों का दौर था। यह सवाल वहीं का वहीं है कि वह हिंदी जिसका हम प्रयोग करते हैं, भारतेंदु हरिश्न्चंद्र के आसपास अच्छे से सुनाई पड़ती है, और इस भाषा के शुद्ध रूप के सामने आने से पहले ही राजभाषा का दर्ज़ा इसे प्राप्त होता है। और उपनिवेशवाद के भारी प्रभाव के कारण इस बची खुची हिंदी पर भी आंग्ल भाषा का असर पड़ता है, और फलस्वरूप हिंदी की अपेक्षा भारत अंग्रेजी को सरलता से अपना रहा होता है।

उपनिवेशवाद के दौर में भी अंग्रेजियत का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक रहा, मगर आज उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अंग्रेजी का प्रयोग भारत में सबसे ज्यादा किया जाता है। दक्षिण में अंग्रेजी को गले से लगाने के बाद भी किसी भी दक्षिण भारतीय राज्यों की भाषा पर अंग्रेजी का दवाब नहीं पड़ा। दोनों भाषाओं ( क्षेत्रीय तथा अंग्रेजी) को बोलने वाला प्रतिशत लगभग बराबर ही था। और जबकि उत्तर भारत में न अंग्रेजी सही अपनाई गयी, इतनी प्रचुरता से लिखा हिंदी साहित्य भी हिंदी - ह्रास नहीं रोक सका। उर्दू-हिंदी के झगड़ों ने उर्दू को क़ौमी भाषा करार देकर उसे क्षेत्र तक ही सीमित कर दिया। अब तो दौर वह लौटा है कि भोजपुरी जैसी बोलियों को अंतर्राष्ट्रीय बनाने की होड़ चली है। और महाराष्ट्र में मराठी को राजभाषा बनाने की। ऐसे भाषाई संक्रमण के दौर में भाषा की राजनैतिक या ऐतिहासिक दोनों तरीकों से समीक्षा करना बेकार है। मगर हिंदी का राजभाषा होने के बावजूद ह्रास होना, और न अंग्रेजी का ही तरीके से अनुसरण, न हिंदी का रक्षण, और अन्य भाषाओं के प्रति उपेक्षा हम पर कहीं न कहीं भारी पड़ती है । भारत के भावी भाषाई दृष्टिकोण को ये प्रश्न कम से कम शंकित तो कर ही रहा है।

साभार -

Early urdu literary culture and history - shamshur rahman faruqi

Mathnavi Noh: siphar - Amir khusrow

Introduction to linguistics - Bholanath tiwari

_ निशांत कौशिक

4 comments:

अनुनाद सिंह ने कहा…

खूब लिखा है आपने। कुछ भी समझ में नहीं आया कि कहना क्या चाहते हैं।

डॉ .अनुराग ने कहा…

थोडा ओर विस्तार देते तो ओर स्पष्ट होता ....जैसे मुंबई का इशारा

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

‘भारत के भावी भाषाई दृष्टिकोण को ये प्रश्न कम से कम शंकित तो कर ही रहा है।’

कई गंभीर इशारे किये हैं आपने...
बहुत से पहलूओं के कारण आप इसे अलग-अलग विस्तार दे सकते हैं...

avinash ने कहा…

Waqai me ravi kee bat se sehmat hu..hindi ke paksh aur vipaksh aur hindi ke chal chalan ke daur ke spasht meemansa aapne lekh me kari hai...aur is umr me bhasha vijnana jaise dushkar vishyo par prashn uthana. kabile tareef hai, anunaad ji ko pata nahi kyu kuch samajh nahi aya...khair ye unki swtantrta hai..magar mujhe lag raha hai ki..aapke prashn ne mujhe vichlit kiya zarur hai..

avinash sharma

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