रितेश मिश्रा जी की ये कविता, उस परम्परा के विरोध में है, जहाँ स्त्री की विशिष्टता उस पर रिप्लेस किए गए एक ख़ास संबोधन से होती है, जिन्हें हम कभी माँ तो कभी देवी तक बदलते रहते हैं। हमारे शब्दकोशों के कुछ ख़ास शब्द हैं, जो आलागिरी से चमचमाते हुए प्रतीत होते हैं, और स्त्री के सम्पूर्ण शोषण के बाद वह शब्द उसे संतुष्टि प्रदान करने का रंगीन माध्यम बनते हैं। और दुःख ये कि स्त्री इससे संतुष्ट है, मुद्दा यह कि चरित्र का विशेषण कोई अन्य चरित्र क्यूँ स्पष्ट कर रहा है, हमें स्त्री के व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बताने के लिए गुरु या देवी जैसे संबोधन महत्वपूर्ण क्यूँ प्रतीत हो रहे हैं, क्या माँ की स्वयं कोई उत्कृष्टता नहीं है कि उसकी विशेषता बनने के लिए हम किसी पद का निर्माण करते हैं ? और उसकी तुलना करते हुए उस पर देवी या गुरु जैसा संबोधन चस्पा कर देते हैं ।
कवितान्तर्गत एक भाव यह भी है, कि माँ की ममता और वह सारे क्रिया कलाप जो कि शैशवावस्था में निभाए जाते हैं,वह समाज की अनुकृति अथवा पूर्व विकसित मान्यताओं का अन्धानुकरण मात्र है, रितेश की ये कविता इसी अन्धानुकरण के ख़िलाफ़ एक हलफनामा है।
बिम्ब को मूर्खतापूर्ण अथवा दार्शनिक पूर्ण बातों में जुमले की तरह प्रस्तुत करना, उसपर अधिकार हथियाना मुझे फिलहाल सही नहीं लगता। परन्तु गुरु की विशिष्टता अथवा किसी पारलौकिक देवी से किसी स्त्री का आवरण बना कर उसे पूज्य बनाना, स्त्री के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करना कि "वेश्या के घर की मिटटी मिलाकर दुर्गा की मूर्ति बनती है" या फ़िर किसी देशज में माँ के नाम की गाली अपने रसीले जुमलों में टांगे फिरना, यह मुझे " सिमोन दा बोउवार " {The second sex} तथा "तसलीमा नसरीन" के इस कथन की याद दिलाता है, कि -
कवितान्तर्गत एक भाव यह भी है, कि माँ की ममता और वह सारे क्रिया कलाप जो कि शैशवावस्था में निभाए जाते हैं,वह समाज की अनुकृति अथवा पूर्व विकसित मान्यताओं का अन्धानुकरण मात्र है, रितेश की ये कविता इसी अन्धानुकरण के ख़िलाफ़ एक हलफनामा है।
बिम्ब को मूर्खतापूर्ण अथवा दार्शनिक पूर्ण बातों में जुमले की तरह प्रस्तुत करना, उसपर अधिकार हथियाना मुझे फिलहाल सही नहीं लगता। परन्तु गुरु की विशिष्टता अथवा किसी पारलौकिक देवी से किसी स्त्री का आवरण बना कर उसे पूज्य बनाना, स्त्री के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करना कि "वेश्या के घर की मिटटी मिलाकर दुर्गा की मूर्ति बनती है" या फ़िर किसी देशज में माँ के नाम की गाली अपने रसीले जुमलों में टांगे फिरना, यह मुझे " सिमोन दा बोउवार " {The second sex} तथा "तसलीमा नसरीन" के इस कथन की याद दिलाता है, कि -
" भिन्न भिन्न संबोधन ही स्त्री के शोषण की आरंभिक नीति है " {सिमोन}
"स्त्री को भिन्न वर्गों में बांटा जाना उसके पतन और शोषण के क्रमानुसार सीढियां है " {तसलीमा}
क़ुरान में लिखा है :-
"दरअसल स्त्रियाँ मनुष्य ही नहीं हैं, वे भोग्य सामग्री हैं, मनुष्य के लिए{मनुष्य से आशय मेरे हिसाब से पुरूष ही होगा} स्त्री, संतान, ढेर सारा सोना -चाँदी और नस्ली घोडों के समूह, गाय बैल, एवं खेत खलिहान के प्रति आसक्त एवं अधिक आकर्षक रहे हैं, यह सब इस जन्म की भोग्य वस्तुएं हैं"
सुरः अल इमरान आयत : १४
"स्त्री सिर्फ़ भोग्य वस्तु ही नहीं, अनाज का खेत भी है, तुम्हारी स्त्रियाँ तुम्हारे अनाज का खेत है, इसीलिए तुम अपनेखेत में जैसा चाहो बो सकते हो, जा सकते हो "।
सुरः अल बकारा आयत : २२३
" भोजन खाकर स्त्री को जूठा देना" { गृहसूत्र १/४/११} { यह प्रथा बंगाल में आज भी है }
जाओ वैदेही तुम मुझ से मुक्त हो, जो करना है मैंने किया, मैंने रावण से युद्ध अपने राज्य और शासन से कलंक मिटाने के लिए किया। मुझे पतिरूप में पाकर तुम ज़राग्रस्त न हो इसीलिये मैंने रावण का वध किया, मेरे जैसा धर्म बुद्धि संपन्न व्यक्ति दूसरे के हाथ में आई स्त्री को एक क्षण के लिए भी कैसे ग्रहण कर पायेगा। तुम सच्चरित्र हो या दुश्चरित्र मैं तुम्हारा भोग नहीं कर सकता मैथिलि।
{ रामायण - राम सीता संवाद - ३/२७५/१०-१३}
स्त्री के पक्ष एवं विपक्ष में हजारों प्रमाण एवं तर्क उपलब्ध हैं, इनका आशय धर्म से नहीं उन मान्यताओं से विरोध है जो स्त्री स्वतंत्रता के विरोधी है। यह सिर्फ़ इस्लाम, हिंदू नहीं, बहुत से धर्म में है जो कहीं सूक्ष्म तो कहीं व्यापक रूप में छाया हुआ है। रितेश की कविता प्रस्तुत है।
"माँ" एक संक्रामक प्रत्यय
माँ ...
मैं क्यों कह दूँ तुम्हें
देवी -?
क्यों ?
कि तुम मेरे पहले गुरू थे
जबकि मैं तुमसे उन सब के लिए लड़ा
जिनके लिए मैं अब भी लड़ पड़ता हूँ
तुम पहली और आखिरी थी
जिसने जोर से पकड़ी थी
मेरी लगाम
और तुम्हारे साथ ही पहली बार हुआ था
सत्ता के विरुध्द संघर्ष
माँ तुम्हे याद हैं
ये जो शब्दों की लड़ाई है न ये तुमसे ही शुरू हुई थी
जिसे तुम 'जुबान लड़ाना' कहती थी
मैं ये नहीं कहता
कि तुमने मुझे प्रेम नहीं किया
अथाह किया !
न ये -
कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता
बस मैं ये कहना चाहता हूँ
कि तुम मेरे प्रथम गुरू नहीं थे
गुरू कि मेरी अपनी परिभाषा है माँ !
नीर- क्षीर विवेक वाली !
तभी तो तुम्हारे कई सिध्दांतों
कई उपदेशों
पर मैं लड़ पड़ता हूँ ;अब भी
और तुम भी तो मुझपर अबतक
अपना थोपना चाहती हो !
मैं ये भी जानता हूँ
कि जितना तुमने इस समाज से एक्सट्रेक्ट (extract) किया
उतना ही इंजेक्ट किया
तुम उस समाज कि अनुक्रिति मात्र हो
उसी समाज की
जिससे मेरे कुछ शील
लेकिन गंभीर विरोध हैं
इसलिए ही तुम सामाजिक देवी होगी
पर मैं तुम्हें देवी नहीं मानता !!
और प्रेम _?
कसम से माँ..
जब भी तुम्हे याद करता हूँ
एक अदम्य स्फूर्ति आती है
धमनियों का रक्त नृत्य करने लगता है
स्वाध्याय का सूत्र खोजने लगता हूँ
स्वीकार्य की चेतना जागृत हो जाती है
तुम्हारे चश्में की पीछे वाली
आँखों ने
कितनी बार
मुझमें कितनी बार
ज्ञान की भूख जागृत की
ये तुम्हारा प्रेम ही तो है माँ
कि मैं कह सकता हूँ
कि तुम देवी नहीं हो
ये तुम्हारा मेरा भीतर होना ही है
कि मैं ये भी कह सकता हूँ
कि तुम मेरे प्रथम गुरू नहीं थे
क्यों _मानती हो न ?
मै अक्सर सोचता हूँ
सार्वभौमिकता के बारे में
वो जो कहतें हैं कि तुम
सार्वभौमिक देवी हो
तब कैसे बन गया वो अपशब्द
जिसमें तुम आते हो
कभी किया उसका संधि -विच्छेद
क्या विश्व कि कोई ऐसी देवी है
जिसके नाम की गाली दी जाती हो ?
जो मै भी बक देता हूँ
माँ ये तुम्हारे नाम की
अँधेरी खोह
बना दी गयी है
ये मर्दों ने बनायी है
ये स्त्री की पूर्णता का
एक भुतहा घर है
जिसमें कुछ आदि मंत्रो के द्वारा ही
घुसा जा सकता है
में वो मंत्र कभी नहीं पढूंगा माँ !
किसी के कहने पर नहीं |||
मैं क्यों कह दूँ तुम्हें
देवी -?
क्यों ?
कि तुम मेरे पहले गुरू थे
जबकि मैं तुमसे उन सब के लिए लड़ा
जिनके लिए मैं अब भी लड़ पड़ता हूँ
तुम पहली और आखिरी थी
जिसने जोर से पकड़ी थी
मेरी लगाम
और तुम्हारे साथ ही पहली बार हुआ था
सत्ता के विरुध्द संघर्ष
माँ तुम्हे याद हैं
ये जो शब्दों की लड़ाई है न ये तुमसे ही शुरू हुई थी
जिसे तुम 'जुबान लड़ाना' कहती थी
मैं ये नहीं कहता
कि तुमने मुझे प्रेम नहीं किया
अथाह किया !
न ये -
कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता
बस मैं ये कहना चाहता हूँ
कि तुम मेरे प्रथम गुरू नहीं थे
गुरू कि मेरी अपनी परिभाषा है माँ !
नीर- क्षीर विवेक वाली !
तभी तो तुम्हारे कई सिध्दांतों
कई उपदेशों
पर मैं लड़ पड़ता हूँ ;अब भी
और तुम भी तो मुझपर अबतक
अपना थोपना चाहती हो !
मैं ये भी जानता हूँ
कि जितना तुमने इस समाज से एक्सट्रेक्ट (extract) किया
उतना ही इंजेक्ट किया
तुम उस समाज कि अनुक्रिति मात्र हो
उसी समाज की
जिससे मेरे कुछ शील
लेकिन गंभीर विरोध हैं
इसलिए ही तुम सामाजिक देवी होगी
पर मैं तुम्हें देवी नहीं मानता !!
और प्रेम _?
कसम से माँ..
जब भी तुम्हे याद करता हूँ
एक अदम्य स्फूर्ति आती है
धमनियों का रक्त नृत्य करने लगता है
स्वाध्याय का सूत्र खोजने लगता हूँ
स्वीकार्य की चेतना जागृत हो जाती है
तुम्हारे चश्में की पीछे वाली
आँखों ने
कितनी बार
मुझमें कितनी बार
ज्ञान की भूख जागृत की
ये तुम्हारा प्रेम ही तो है माँ
कि मैं कह सकता हूँ
कि तुम देवी नहीं हो
ये तुम्हारा मेरा भीतर होना ही है
कि मैं ये भी कह सकता हूँ
कि तुम मेरे प्रथम गुरू नहीं थे
क्यों _मानती हो न ?
मै अक्सर सोचता हूँ
सार्वभौमिकता के बारे में
वो जो कहतें हैं कि तुम
सार्वभौमिक देवी हो
तब कैसे बन गया वो अपशब्द
जिसमें तुम आते हो
कभी किया उसका संधि -विच्छेद
क्या विश्व कि कोई ऐसी देवी है
जिसके नाम की गाली दी जाती हो ?
जो मै भी बक देता हूँ
माँ ये तुम्हारे नाम की
अँधेरी खोह
बना दी गयी है
ये मर्दों ने बनायी है
ये स्त्री की पूर्णता का
एक भुतहा घर है
जिसमें कुछ आदि मंत्रो के द्वारा ही
घुसा जा सकता है
में वो मंत्र कभी नहीं पढूंगा माँ !
किसी के कहने पर नहीं |||
निशांत कौशिक
9 comments:
stree vimarsh ki dusri kadi achchi lagi... aapke lekhan mein gehrahi hai... kabhi kabhi kuch bahut achche samalochak ki yaad dilata hai... sabse aant mein behtar Namvar singh yaad aate hai... behtar hoti post.... shukriya...
upar jo kathane aapne ullakhi ki hai woh romanchit karne wali hai... main kya kahun... itna ....
आम तौर से किसी विमर्श के तहत लिखना मुझे इतना अपील नहीं करता ...यानी जो भी इमानदारी से लिखा जाये बिना किसी टेग के तहत वो अच्छा है...कविता का शीर्षक अपने आप खीच लाता है .चित्र भी अपने आप में एक कविता है ...कथादेश में सुधा अरोडा के लेख मुझे सोचने पर मजबूर करते थे...की स्त्री की भौमिकता क्या है ....अस्तित्व क्या है.......
कविता भी एक अलग रवानगी में बहती है ...सच सा बहुत कुछ कहती हुई... सोचने का अंदाज ब्यान करती है
According to me....aaj tak maa par is chintan ar aisi kavita kisi ne nahin likhi...maa par pahli rachna..aur kavi ko salaam hai...ye kavi bahut uncha chintak hoga zarur...inki nishkarsh kavita bhi ughaad fenkne kee takat rakhti hai..behtreen rachna ewam sameeksha...nishant ji aapka blog din b din acchi acchi post laa raha hai , mein padhne ko bhi utsuk rahta hun..sab accha likha hai...chitr to pata nahin kya kya kah raha hai....aap kam likhiye 1 month mein 1 post daliye...magar jaandaar daliye...abhi tak waise mujhe bahut powerfull bindu wali post mili hai..aage bhi milenge aasha hai
Avinash sharma...
bahut gahra chintan...aapne jo tark diye hain..dekhiyega kahin aapko bhi tasleema ya rushdie kee tarah desh nikala na ho jaye....zabardast tark aur zabaradast chintan hai kavita ka..ye kavi behtreen hai..inhein apne lekhan kshetr ka prasaar karna chahiye..accha likh rahe hain ritesh ji..aur nishant ka kavita chayan to hai hi badhiya...tark acche hain,,mein soch raha tha kee is par kuch bahas hogi..kahin to dharm rakshak ugr honge..magar mein aapki tarkikta se parichit hun...khaaskar dharm ke mamle mein...hahaha....dhanywaad padhane ke liye...
aapka friend...Rajan mishra
sasaram, bihar...
रितेश इस पहलू को छूकर एक गंभीर और साहसी शुरूआत कर रहे हैं।
अक्सर माँ शब्द की अवधारणा ही एक बेडी का काम करती है, और सच्चाई कबूल करने में हिचक पैदा करती है।
इससे समय को भी संबल मिला है कि माँ की इस प्रचलित अवधारणा पर लिखने की हिमाकत की जा सकती है।
बहुत-बहुत शुक्रिया।
भुतहा घर ..........स्त्री का पूरा जीवन ही .
accha prayas hai mitra....lage raheye....
The writer has hit the chord. The discord arrised when people treat women as everything in this world except 'woman'. A women is constantly being 'superhumanized', she is expected to beahve like a goddess, act like a teacher but not like a human being who is just like any other man. Kudos to your creation.
Hope to read more..
Cheers
arpita
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ताहम........