गुरुवार, 6 मई 2010

आलोचना के अधूरे प्रतिमान

६०-७० के दशक में परिपक्व हुआ नक्सलबाड़ी आन्दोलन आज घोर वैचारिक संकट से गुज़र रहा है. आन्दोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ता चारू मजुमदार और कानू सान्याल के हस्र के बारे में सभी जानते हैं. फिर भी, जिस हलके में नक्सल आन्दोलन को आज आँका और उसके मुताल्लिक दुष्प्रचार किया जा रहा, वह दोनों पक्षों को भयावह हाशिये में छोड़ सकता है.

भारत के समकालीन कम्युनिस्ट आन्दोलन में तमाम तरह की खामियों के बावजूद जो बेहतरी के प्रयास उसके द्वारा किये गए, उसे एक आदतन कार्यवाही के क्षेत्र में रखा जा सकता है. थोथे कम्युनिस्ट आलोचक (न कि कम्युनिज्म) जिनकी नज़र में सिंगुर-नंदीग्राम सबसे भयावह मसला, और विस्थापन है, "धर्म विरोधी कम्युनिज्म" अवधारणा के आधे अधूरे जुमले ज़बान में बांधे घूमना ग्लैमर हो चला है. फुकोयामा की किताब " द एंड ऑफ़ हिस्ट्री" या फिर राहुल सांकृत्यायन के ज़बान में "गलतियों से भरा इतिहास" जैसे वाक्यों को दोहराना दोहरे मापदंड के प्रमाण हैं, जो नपे तुले तर्कों से प्रतिवाद करते हैं. कम से कम मेरा दृष्टिकोण कतई भी भारत के वाम दलों की पैरवी करना नहीं है, वरन संक्षिप्त में इसके बारे में प्रचलित धारणा को अपने नज़रिए से स्पष्ट करना हैं.

व्यवहारिक बिंदु "छत्तीसगढ़ आज नक्सल आतंक का गढ़ बना हुआ है" "आए दिन उनके द्वारा किये जाने वाले अत्याचार" या इसी तरह की तमाम अखबारी धारणाओं को केंद्र में रखकर देखा जाता रहा है कि चीन - नेपाल या अन्य वाम प्रधानिक-प्रभावित क्षेत्रों से नक्सलियों को बड़ी संख्या में हथियार भेजे जा रहे हैं. क्या राज्य सरकारों की चैतन्यता का दृष्टिकोण या अखबारों की तेज़ नज़रों के बिम्ब इन बातों को स्पष्ट नहीं कर सकते कि इन हथियारों (हथियारों के ज़खीरों) के आदान प्रदान का माध्यम क्या है. ट्रांसपोर्ट के किस मीडियम के तहत इन ज़खीरों को पंहुचाया जा रहा है संभाव्य निष्कर्ष यह कि यह मदद राज्य सरकारों के बाशिंदों द्वारा ही पंहुचाई जा रही है. जो अपने लिए एक मजबूत विपक्ष भी तैयार कर रही है. नक्सलियों की मदद करते हुए. जिस जनता को वह बुनियादी सुविधाएं बिजली, पानी, सड़कों के माध्यम से लम्बे समय तक विश्वास के सरोकार को नहीं बना सकती. उस समय में नक्सल विरोधी अभियान राज्य सरकार को जनता के बीच में लोकप्रिय छवि बनवाने में कारगर साबित होंगे.

नक्सलबाड़ी आन्दोलन की शुरुआत एक सुगठित दृष्टिकोण पर भले ही निर्भर न हो, मगर उसका विषय बेहद आवश्यक था.क्रांति दोहराने की निंदा करने वाले भले ही नेपथ्य में बैठे कुछ चरित्र इस आन्दोलन को चीनी-रूसी वाम आन्दोलन थीम के तहत ब्रेड, पीस, सत्ता हथियाने का कारगर हथियार मानते रहे हों. मगर समकालीन परिस्थिति को देखकर ये सपना एक भयावह सच है. इन सब से छुटकारे पाने के सरकारी उपाय बेहद अलोकतांत्रिक और गैर वैचारिक हैं. जो निष्कर्ष हीन हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के थोथे आलोचक विस्थापन के नाम पर नंदीग्राम का हवाला देते हैं. जो कि उनकी नज़र में सबसे भयावह विस्थापन है. शहर जबलपुर में इन दिनों पावर प्रोजेक्टों की बाढ़ आई है, चुटका,झांसीघाट, बरगी और शहर के १०० कि.मी. के रेडियस में तेज़ी से चल रही प्रक्रिया विस्थापन के उदाहरण में सिंगुर-नंदीग्राम से खतरनाक है. संसाधनों को लेकर किये जाने वाले विस्थापन उन के लिए कतई कारगर नहीं, जिन्हें अपनी ज़मीन छोडनी होगी, वे हमेशा इन से वंचित रहेंगे. बंगाल वही जगह है जहाँ प्रति एकड़ के हिसाब से लाखों की ज़मीन बेचीं जा रही थी. मालिक,बटईदार के आपसी मसलों को सरकार और स्थापित होने वाले संसाधन को भी गिरह में लिया, निष्कर्षतः मामला खटाई में गया. जबलपुर शहर में १०००० हज़ार रूपए प्रति एकड़ के हिसाब से उपजाऊ ज़मीन बेचीं जा रही है, और स्थानीय रहवासी इस श्रृंखला में हैं कि उनकी ज़मीन किस तरह बिक जाए. चुटका में नर्मदा किनारे बस रही फैक्ट्री से यदि किसी भी तरह का रासायनिक स्त्राव होता है तो नर्मदा , नर्मदा न रहेगी. फैक्ट्री के निर्माण में हो रही देरी के विरोध में शहर के तमाम अखबार काले निकले जाते हैं. और तार्किक दलीलों के साथ ज्ञापन सोंपे जाते हैं. जबलपुर और सम्पूर्ण भारत में चल रहे इस विस्थापन का वे कतई विरोध नहीं करते जो आए दिन बंगाल के उदाहरण ले बैठते हैं. बंगाल में जो कुछ हुआ वो बेहद शर्मनाक है, किन्तु अब जो होगा वह शर्मनाक जैसे शब्दों से ऊपर होगा.

_निशांत कौशिक

6 comments:

Ashok Kumar pandey ने कहा…

तुम्हारी मूल स्थापनाओं से मेरी सहमति है। नक्सलवादी आंदोलन की यह धारा आतंकवादी भटकाव का शिकार हो चुकी है। साथ ही स्टेट का चरित्र भी लगातार और ज़्यादा पूंजीपतियों के हितों के रक्षक का और इसके चलते रिप्रेसिव हुआ है जिसने हिंसा के लिये आधार उपलब्ध कराये हैं। ऐसे माहौल में वाम शासित किसी राज में नंदीग्राम का होना बेहद शर्मनाक था और यह साबित करने वाला कि संसदीय वाम भी सत्ताधारी वर्ग में शुमार हो चुका है। लेकिन मीडिया ने एक नंदीग्राम की आड़ में सैकड़ों श्रीगंगानगर,उड़ीसा, जबलपुर, नर्मदा, नवी मुम्बई आदि बड़ी चतुराई से छिपा कर अपने मालिक़ान की सेवा की।

चाहो तो नंदीग्राम पर मेरा आलेख देखना।http://economyinmyview.blogspot.com/search/label/%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE

सुशीला पुरी ने कहा…

सही लिखा आपने ........

डॉ .अनुराग ने कहा…

तुम्हे बहुत मिस किया यार पिछले दिनों....इसी मुद्दे पर लम्बी चर्चा हुई थी यहाँ .कल ही इसी पर शायद हिन्दुतान में एक लेख पढ़ रहा था .के क्यूँकर एक आदमी जो क्रांति से शुरुआत करता है आत्म हत्या की ओर विमुख होता है .......

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बेहतर विचार विमर्श को प्रेरित करता विश्लेषण...
अशोक जी कह ही गये हैं...

Amitraghat ने कहा…

"बिना सरकारी मदद के कोई भी आन्दोलन पनप ही नहीं सकता । यह तो ठीक वैसा ही है कि पहले कोई सॉफ्ट्वेयर बना के पैसा कमाओ फिर उसके बाद वायरस बनाओ उसके बाद ऐण्टी वायरस बनाके उससे भी खूब सारा पैसा पैदा करो। अब नर्मदा को नाला बनाने की पूरी तैयारी कर ली गई है.."

MANOJ ने कहा…

निशांत देर से टिप्पणी देने के लिये माफ़ी
आपका यह आलेख एक बेहद जटिल विषय पर है अत: एक संश्लिष्ट विश्लेष्ण की मांग करता है|
भारतीय पूजीवाद के विकास की प्रक्रिया दो तरफ से खुली नज़र आती है| यहाँ कामन प्रापर्टी रिसोर्स को प्रायवेट कैपिटल में तब्दील के प्रयास में रोड़ा -माओवादी और आदिवासी दोनों को बेदखल करने के लिए ग्रीन हंट और सलवा जुड़म है तो वँही सरकार नक्सलवाद का जबाव अपने तरह के पूंजीवादी विकास से भी दे रही है| जाहिर हैं इस विध्वंसक विकास आदिवासी को उनकी पहली वाली स्थिति तो मुक्त करता है पर ......पर यही संघर्ष की गुंजाईश भी बनती है पर ......इससे निपटने के लिए आवश्यक विचार और रणनीति मौजूदा संगठनो के पास नज़र नहीं आती है
विस्थापन , किसानो, पर्यावरण के संघर्ष तो एक समय बाद प्रतिक्रयावादी होने लगतें हैं .......यह भी विचार का संकट है...............

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