कंसेप्ट बहुत पहले से गूंज रहा था, मगर इसको शब्दों में उतारने की प्रक्रिया हफ्ते भर पहले ही निभाई गई। कुछ दिन पहले सांस्कृतिक साम्राज्यवाद पर लेख तैयार कर रहा था, उसी समय क्षणिक स्थिति में कुछ रचना तैयार हुई। और इस रचना का मूल कारण भी संस्कृति के पक्ष में होने वाले भिन्न भिन्न अनुमान और उनकी सामाजिक भयावहता ही है. भूल जाने की अस्थाई बीमारी से बचते बचते मैं इसके अंतिम स्वरूप तक पहुँच ही गया।
कविता प्रस्तुत है :
~~~~~~
समकालीन वक़्त
नया संस्करण है
बेवजह की अनुभूतियों से
भर देने को तत्पर
बजते हुए शून्य को
नेपथ्य में कोई हंगामा नहीं है
सारी छायाएं
अब सामने आकर
कर रही हैं
तर्क के नए प्रतिमानों के साथ
मुसलसल प्रतिवाद
जैसे "नशे में लिखी जा रही हो आत्मकथा"
आकाश में बेतरतीबी से फैला रहा हो कोई चूना
सब बदल रहा है अपरिभाषित चित्र में
सुदूर पूर्व में
तहमत संभाले, आँख मलता सूरज
अपने हिस्से की रौशनी फेंक कर
हत्यारों की तरह भाग रहा है एक दिशा से दूसरी दिशा की जानिब
प्रकृति का सबसे सुन्दर हिस्सा कवियों ने हथिया लिया है
अबरू पर शिकन रखे
गोगां और मतीसी
कब्रों से बाहर निकलकर
अपनी पुरानी कूचियों से
वातावरण को रफू करने की
कवायद में मशगूल है
सभ्यता का एक और रोज़नामचा
हाशिये में बलत्कृत, मांदा पड़ा है
चूहों द्वारा कुतरी गई
किसी विचारधारा के चीथड़े
हवा में अलग अलग बह रहे हैं
मौन
सब कुछ वैसे ही
जैसे
छप्पर संभाले
बुजुर्ग लाकड़ को खाए जा रहा है कीट (वैसे संस्कृति कभी बुजुर्ग नहीं होती)
और समूचा घर खामोश है
सारी समझ के साथ
उनके दौर की बुद्धि
विकल्प में
काटे जा रही है
एक हरे भरे दरख़्त को
या आवाज़ है,
बुजुर्ग लाकड़ को
पाटे हुए नारों के साथ
जिंदा रखने की। ( संस्कृति मरती भी नहीं है)
इस दौर के शब्दकोश में
समझदारी को समझौता कहते हैं ।
- निशांत कौशिक
कविता प्रस्तुत है :
~~~~~~
समकालीन वक़्त
नया संस्करण है
बेवजह की अनुभूतियों से
भर देने को तत्पर
बजते हुए शून्य को
नेपथ्य में कोई हंगामा नहीं है
सारी छायाएं
अब सामने आकर
कर रही हैं
तर्क के नए प्रतिमानों के साथ
मुसलसल प्रतिवाद
जैसे "नशे में लिखी जा रही हो आत्मकथा"
आकाश में बेतरतीबी से फैला रहा हो कोई चूना
सब बदल रहा है अपरिभाषित चित्र में
सुदूर पूर्व में
तहमत संभाले, आँख मलता सूरज
अपने हिस्से की रौशनी फेंक कर
हत्यारों की तरह भाग रहा है एक दिशा से दूसरी दिशा की जानिब
प्रकृति का सबसे सुन्दर हिस्सा कवियों ने हथिया लिया है
अबरू पर शिकन रखे
गोगां और मतीसी
कब्रों से बाहर निकलकर
अपनी पुरानी कूचियों से
वातावरण को रफू करने की
कवायद में मशगूल है
सभ्यता का एक और रोज़नामचा
हाशिये में बलत्कृत, मांदा पड़ा है
चूहों द्वारा कुतरी गई
किसी विचारधारा के चीथड़े
हवा में अलग अलग बह रहे हैं
मौन
सब कुछ वैसे ही
जैसे
छप्पर संभाले
बुजुर्ग लाकड़ को खाए जा रहा है कीट (वैसे संस्कृति कभी बुजुर्ग नहीं होती)
और समूचा घर खामोश है
सारी समझ के साथ
उनके दौर की बुद्धि
विकल्प में
काटे जा रही है
एक हरे भरे दरख़्त को
या आवाज़ है,
बुजुर्ग लाकड़ को
पाटे हुए नारों के साथ
जिंदा रखने की। ( संस्कृति मरती भी नहीं है)
इस दौर के शब्दकोश में
समझदारी को समझौता कहते हैं ।
- निशांत कौशिक
14 comments:
आज के इस गड्ड मड्ड समय को, जहाँ समय ही सिधान्तविहीन हो चुका है ऐसे मे संस्कृति का संक्रमित होना बेहद खतरनाक है ...सरोकारों का चुक जाना सचमुच विचारधाराओं के चिंदी चिंदी हो जाने का सबूत है...
सूरज का अनोखा विम्ब रचा है आपने ....बधाई .
बहुत उम्दा रचना..
सुदूर पूर्व में
तहमत संभाले, आँख मलता सूरज
अपने हिस्से की रौशनी फेंक कर
हत्यारों की तरह भाग रहा है एक दिशा से दूसरी दिशा की जानिब
-वाह!
यह कविता तुमने सुनायी थी और तभी मुझे अच्छी लगी थी…बेहद मानीख़ेज़ बिम्बों और रूपकों के ज़रिये तुमने कुछ जायज़ चिन्ताओं की ओर इशारे किये हैं… शुभकामनायें लो।
इस बार की कविता को हम थोडा हेर फेर करके आज़ाद नज़्म की शक्ल भी पहना सकते है ...मुझे बहुत अच्छा लगा जब तुम्हे उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल करते पाया ......कविता तो खैर .......
जैसे
छप्पर संभाले
बुजुर्ग लाकड़ को खाए जा रहा है कीट (वैसे संस्कृति कभी बुजुर्ग नहीं होती)
superb.......
या आवाज़ है,
बुजुर्ग लाकड़ को
पाटे हुए नारों के साथ
जिंदा रखने की। ( संस्कृति मरती भी नहीं है)
i love this style......
जब दिल और दिमाग पर बहुत हावी हो जाती है तुम्हारी पोस्ट तो मैं तुम्हारा प्रोफाइल पढ़ लेता हूँ...
"नशे में लिखी जा रही हो आत्मकथा" का जिक्र मैंने शायद यहाँ पहले भी देखा है. शायद किसी पुरानी पोस्ट में.
हाशिये में बलत्कृत, मांदा पड़ा है
यह शब्द गज़ब के हैं..
"संस्कृति भी ऊर्जा की तरह होती है जो कि कभी नष्ट नहीं होती और ना ही संक्रमित होती है बल्कि परिवर्तित हो जाती है..........."
amitraghat.blogspot.com
सभ्यता का एक और रोज़नामचा
हाशिये में बलत्कृत, मांदा पड़ा है
चूहों द्वारा कुतरी गई
किसी विचारधारा के चीथड़े
हवा में अलग अलग बह रहे हैं
उफ़्फ़.. सभ्यताओ और विचारधाराओ की यही हालत है..एक के बाद एक लुट रही है और एक के बाद एक समझदारी दिखा रही है...समझौते कर रही है..
मेरे हिसाब से..
इस दौर के शब्दकोश में
समझौते को समझदारी कहते हैं ।
अगर हम खुद न कत्ल करे तो संस्कृति कभी नहीं मरती मिट्टी पत्थरों के नीचे बड़ी साँस लेती रहती है जब तक कि दबी हुई सभ्यता की खोज फिर से न हो जाये.
मौन
सब कुछ वैसे ही
जैसे
छप्पर संभाले
बुजुर्ग लाकड़ को खाए जा रहा है कीट (वैसे संस्कृति कभी बुजुर्ग नहीं होती)
और समूचा घर खामोश है
सारी समझ के साथ
उनके दौर की बुद्धि
विकल्प में
काटे जा रही है
एक हरे भरे दरख़्त को
या आवाज़ है,
बुजुर्ग लाकड़ को
पाटे हुए नारों के साथ
जिंदा रखने की। ( संस्कृति मरती भी नहीं है)
Bahut achhi bhavpurn prastuti....
Deshaj shabdon ka sundar prayog....
Bahuut shubhkamnayne...
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ताहम........